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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
ही नहीं, इसको तू शुद्ध रूप से श्रद्धा करना चाहता नहीं, बस तो जा तू अभव्य है तुझे आत्मा की प्राप्ति नहीं होगी। अरे द्रव्य दृष्टि से देख यह शुद्ध ही हैं। इसी को शुद्ध की श्रद्धा करके ग्रहण कर अन्यथा कोरा रह जायेगा । तुझे आत्मा ही न मिलेगा।
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न परीक्षाक्षमं चैतच्छुद्धं शुद्धं यदा तदा ।
शुद्धस्यानुपलब्धौ स्याल्लब्धिहेतोरदर्शनम् ॥ ९२९ ॥
अर्थ - यह बात भी परीक्षा करने से सिद्ध नहीं हो सकती कि जिस समय सुवर्ण, पर्याय से शुद्ध है, उस समय ही वह शुद्ध है और अब द्रव्य रूप से शुद्ध नहीं है कारण कि शुद्ध द्रव्य की प्राप्ति न होते उसकी प्राप्ति के कारण का भी अदर्शन सिद्ध होता है।
भावार्थ - यह बात भी परीक्षा के योग्य नहीं है कि जिस समय सोना पर्याय में शुद्ध है उस समय ही वह शुद्ध है अब नहीं। ऐसा मानने से शुद्ध सोने का प्रतिभास भी न हो सकेगा क्योंकि शुद्धता में कारण अशुद्धता है। अशुद्धता में ही शुद्धता का प्रतिभास होता है। अशुद्धता का अदर्शन ( लोप ) होने पर शुद्ध का भी लोप हो जायेगा। खान में से जो सोना निकलता है वह पर्याय से शुद्ध होता नहीं है किन्तु मिट्टी के संयोग सहित होता है, फिर भी "उसमें शुद्ध स्वर्ण सदा शक्तिपने रहता है" ऐसा जो न स्वीकारे उसको शुद्ध पर्याय वाला सोना नहीं मिल सकेगा। इसी को शुद्ध सोना प्रतीति करने से खोट निकाल कर शुद्ध किया जा सकता है। और कोई उपाय नहीं है। उसी प्रकार यदि तू यह कहे कि शुद्ध तो सिद्ध आत्मा ही है। यह तो सर्वथा अशुद्ध है। उसे मैं ग्रहण नहीं कर सकता। बस भाई सर्वथा शुद्ध तो है नहीं और शुद्ध आत्मा की प्राप्ति का कारण जो यह आत्मा है इसे तू द्रव्य रूप से अभी शुद्ध श्रद्धान करना चाहता नहीं बस तो भाई जा तुझे आत्मा ही न मिलेगा। अरे इसी को स्वभाव से शुद्ध श्रद्धा कर फिर देख इसमें से अशुद्धता कैसे निकल भागेगी और यही शुद्ध हो जायेगा। अशुद्धता तो संयोगी हैं। अभूतार्थं हैं। मूल मेटर शुद्ध हैं। अभूतार्थ का अस्तित्व मूल मेटर में किसी प्रमाण से नहीं है ।
यदा तद्वर्णमालायां दृश्यते हेम केवलम् ।
न दृश्यते परोपाधिः स्वेष्टं दृष्टेन हेम तत् ॥ ९३० ॥
अर्थ- जब उसकी वर्णमाला में केवल सोना लक्ष में लिया जाता है। पर उपाधि लक्ष में नहीं ली जाती तो प्रत्यक्ष प्रमाण से अपना इष्ट वह शुद्ध सोना तुरन्त प्रतीति में आ जाता है।
भावार्थ - भाई तू जो यह कह रहा है कि अशुद्ध की शुद्ध रूप कैसे श्रद्धा कर लूं तो हम कहते हैं कि तू सोने में उपाधि से होने वाली पर्यायों को क्यूं देख रहा है। पर्यायदृष्टि से मत देख, वस्तु दृष्टि से देख तो तुझे सब की सब वर्णमाला में उसी शुद्ध सोने का प्रत्यक्ष अनुभव होगा। अरे उसी प्रकार इस जीव को बद्धावद्ध दृष्टि से मत देख, द्रव्य दृष्टि से देख पारिणामिक स्वभाव को देख, तुझे अभी शुद्ध के दर्शन होंगे।
ततः सिद्धं यथा हेम परयोगाद्विना पृथक् ।
सिद्धं तद्धर्णमालायामन्ययोगेऽपि वस्तुतः ॥ १३१ ॥
अर्थ - इसलिये यह सिद्ध हो गया कि जैसे सोना पर योग के बिना ( पर्याय में) शुद्ध है वैसे ही उसकी वर्णमाला में भी अन्य का योग होने पर भी वस्तुपने से अब भी वैसा ही शुद्ध है यह भी सिद्ध हो गया ।
भावार्थ - अरे जैसा सौ टंच का सोना सराफ की अलमारी में रखा है ठीक वैसर ही पर वस्तु का संयोग होने पर भी यह भी सौ टंच का ही है। न होता तो वैसा हो कैसे जाता । उसी प्रकार भाई जैसा शुद्ध आत्मा सिद्ध में है। वैसा ही तू अब भी है। अरे है। नौ के नौ परिणामों में यह सदा एक जैसा शुद्ध ही है। न होता तो हो कैसे जाता । होना तो केवल पर्याय दृष्टि से है। वस्तु तो अभी मुक्त रूप ही है। शुद्ध ही है।
प्रक्रियेयं हि संयोज्या सर्वदृष्टांतभूमिषु ।
साध्यार्थस्याविरोधेन साधनालंकरिष्णुषु ॥ ९३२ ॥
अर्थ - यह ही प्रक्रिया साध्य अर्थ के अविरोधपने से साधन से सुशोभित सब दृष्टांत भूमियों में लगा लेनी चाहिये ।