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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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अर्थ-जैसे एक ही सोना पर के सम्बन्ध से अनेक वर्ण रूप हो जाता है। उस ( पर योग ) को नहीं हुये के समान उपेक्षा करके केवल उस सोने को देख तो यह शुद्ध ही है।
भावार्थ-जिस प्रकार अन्य धातुओं के संयोग से सुवर्ण में अनेक प्रकार के रूप दीखते हैं परन्तु जो परसंयोग पर तथा उस पर संयोग से होने वाली सुवर्ण की अवस्थाओं पर ध्यान न देते हुए जो उस सुवर्ण को ही देखने में आवे तो वह सुवर्ण उसी समय शुद्ध सुवर्ण ही प्रतीत होता है। उसी प्रकार सोने की जगह जीव समझे, संयोगी धातु की जगह कर्म का उदय समझें। स्वर्ण की रङ्गबरङ्गी दशाओं की जगह जीव की विसदश नौ पर्यायें समझें। अब यदि उन दशाओं को देखें तो जीव नौ रूप है पर जो उस कर्म तथा उससे होने वाली नौ नैपिनिक अवम्भाओं को गौण करके देखें तो शुद्ध जीव उस समय प्रतीति में आता है। अनुभव में आता है। इसलिए भाई तेरे माने हुए शुद्ध जीव का अनुभव इस प्रकार इन्हीं नौ में होता है। ये भी अवश्य मान तभी शुद्ध-अशुद्ध दोनों की व्यवस्था बनेगी।
शंका-अब तक तो शिष्य उन नौ पदार्थों को मान ही नहीं रहा था और अब कहता है कि यदि हैं तो फिर हैं ही।
नकी उपेक्षा कैसे कर दी जाय अर्थात फिर उन्हें नहीं हए के समान कैसे मान लिया जाये और फिर तो वह शदध भी अशुद्ध हो जायेगा शुद्ध न रहेगा। फिर शुद्ध का अनुभव कैसे किया जायेगा। अब तक तो आचार्य महाराज उसे नौ का अस्तित्व ही सिद्ध कर रहे थे। खैर वह ज्यूं त्यूं करके इनको मानने को तैयार भी हुआ तो दूसरी अड़चन यह उत्पन्न कर दी कि यदि हैं तो फिर उपेक्षा नहीं हो सकती और शुद्ध का अनुभव नहीं हो सकता सो उत्तर में अब श्री अमृतचन्द्र गुरुदेव उसे यह समझायेंगे कि उनकी उपेक्षा कैसे की जाती है और उनमें ही शुद्ध का अनुभव कैसे किया जाता है। जब इस प्रश्न का समाधान शिष्य को संतोषजनक हो जायेगा तो वह नौ तत्चों को स्वीकार करेगा क्योंकि उसको जो शुद्ध इष्ट है अभी तो वह ही खत्म हआ जाता है जिसकी उसे चिन्ता है।
न चाशंक्य सतस्तस्य स्यादुपेक्षा कर्थ जवात् ।
सिद्धं कुतः प्रमाणाद्वा तत् सत्वं न कुतोऽपि वा ।। ९२७॥ अर्थ-भाई तुझे ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये कि उस ( संयोगरूप) सत् की उपेक्षा जल्दी से कैसे कर दी जावे क्योंकि उसका सत्त्व ही किस प्रमाण से सिद्ध है- किसी प्रमाण से भी नहीं। (एक वस्तु में दूसरी वस्तु का अत्यन्ताभाव होने से सत्त्व किस प्रकार सिद्ध होगा ? अन्यथा दो वस्तुयें एक हो जायेंगी।
भावार्थ-शिष्य कहता है कि गुरु महाराज आपके कहे अनुसार सोने के साथ खोट रूप से दूसरी थातु है तभी तो उसमें ऐसी रंगी-बिरंगी नाना प्रकार की अवस्थायें हो रही हैं। उसी प्रकार जीव के साथ कर्म है तभी तो उसकी विसदृश रूप नौ दशायें हो रही हैं। इस पर मैं पूछता हूं कि वह खोद रूप वस्तु और उससे होने वाली अवस्थायें तो प्रत्यक्ष हैं, उनकी उपेक्षा कैसे कर दी जाय अर्थात् उसे कैसे न देखा जाय तथा उनके रहते तो मूल वस्तु अशुदध है उसे शुद्ध रूप कैसे अनुभव किया जाय तो उसके उत्तर में आचार्य देव कहते हैं कि जब तक तू संयोग दृष्टि से देख रहा है तभी तक तुझे वह सब कुछ दीख रहा है। अरे वस्तु स्वभावको दृष्टि से देखाएक वस्तु में दूसरी का अत्यन्ताभाव है। एक में दूसरी की सत्ता तो किसी भी प्रमाण से नहीं हैं। यदि होती तो वह निकल कैसे भागती। दोनों द्रव्य एक हो जाते।
नालाटेयं हि तद्धेम सोपरवतेरुयाधिवत् ।
तत्त्यागे सर्वशून्यादिदोषाणां सन्निपाततः || ९२८॥ अर्थ-भाई उपरक्ति के कारण उपाधिवाला वह सोना उपादेय नहीं है ऐसा नहीं है क्योंकि उस (अशुद्ध सोने) के त्यागने पर सर्व शून्यादि दोषों का प्रसंग आता है। (शुद्ध सोना ही हाथ न लगेगा)।
भावार्थ-भाई तू जो यह कहता है कि मैली अवस्था के कारण खोट वाला सोना शुद्ध स्वर्ण रूप से ग्रहण नहीं किया जा सकता तो कहते हैं कि यदि इसमें अभी शुद्ध स्वर्ण की प्रतीति करके इसे ग्रहण करेगा तो खोट निकलने पर यह शुद्ध ही है और यदि इसे स्वीकार नहीं करता तो बिना खोट का सर्वधा शुद्ध सोना तो अनादि शुद्ध कोई है ही नहीं। बस तो जा तुझे सोना ही न मिलेगा तू कोरा ही रह जायेगा। उसी प्रकार यदि तू यह कहे कि विकार के कारण प्रत्यक्ष इस संसारी आत्मा की शुद्ध रूप से कैसे श्रद्धा कर ली जाय तो भाई सर्वथा अनादि शुद्ध तो कोई है