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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अर्थ- ज्ञान ज्ञेयाकारों में ही पाया जाता है। और ज्ञान घट को जानता हुआ घट ज्ञान कहलाता है पर पदार्थ रूप से जान इस घड़े रूप नहीं हो जाता है। ज्ञान ज्ञानरूप है। घड़ा घड़ा रूप है। उसी प्रकार जीव, व्यवहार नय से नव पदार्थमय कहलाता है। परन्तु शुद्ध दृष्टि से वह नव पदार्थमय नहीं है। नौ पदार्थ नौ पदार्थ रूप है, जीव-जीव रूप है। इसलिये नौ को मानकर फिर उनकी उपेक्षा करके शुद्ध का अनुभव किया है।
वारिधिः सोत्तरडोऽपिवायना प्रेरितो यथा ।
जार्धादैक्यं तदात्वेऽपि पारावारसमीरयोः ॥ ९३९ ।। अर्थ-जैसे वायु से प्रेरित लहरों वाला समुद्र है। उस समय भी पदार्थरूप से समुद्र और वायु में एक पदार्थपना नहीं है। उसी प्रकार जो कि जीव परद्रव्य के संयोग-वियोग पूर्वक होने वाले नव पदार्थमय कहलाता है तो भी वह परद्रव्यमय नहीं हो जाता परन्तु शुद्धनय से वह शुद्ध ही रहता है। इसलिये नौ को मान कर फिर उनकी उपेक्षा करके शुद्ध का अनुभव किया जाता है।
सर्वतः सैन्य विल्याटिन रस रस :
चिनोपदंशकेषूच्चैर्यन्जानेकरसं यतः ॥ ९४०॥ अर्थ-नमक की डली पदार्थ रूप से स्वयं सम्पूर्णतया एक रस है वह नाना प्रकार के शाकों में मिली हुई वस्तुरूप से अनेक रस रूप नहीं हो जाती। उसी प्रकार जीव स्वयं ही अद्वैतरूप होकर सब अवस्थाओं में चिदात्मक ही है। वह पर द्रव्य के संयोग-वियोग पूर्वक होने वाले जीवादिक नौ तत्वों में विमिश्रित होकर भी अशुद्ध-द्वैतरूप नहीं हो जाता इसलिये नौ को मानकर फिर उनकी उपेक्षा करके शुद्ध का अनुभव किया जाता है।
इति दृष्टांतसनाथेन स्वेष्टं दृष्टेन सिद्धिमत् ।
यत्पदानि नवामूनि ताच्यान्यर्थादवश्यतः ॥ ९४१॥ अर्थ-ऐसे दष्टांत यक्त प्रत्यक्ष प्रमाण से अपना इष्ट सिद्ध हो गया कि ये नौ पदार्थ-पदार्थ रूप से चाहिये।अर्थात् आत्मा की इन नौ पर्यायों का अवश्य निरूपण करना चाहिये।क्योंकि इन्हीं में तो सम्यक्त्वका विषयभूत सामान्य जीव का अनुभव किया जाता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने नौ पदार्थों में वाच्यता सिद्ध की।
अगली भूमिका-पहले ९०१ से ९०३ तक नौ पदार्थों का अस्तित्त्व बतलाया। ९०४ में शिष्य ने उसे मानने से इन्कार कर दिया तो ९०५ से १०९ तक उनका अस्तित्व सिद्ध किया। फिर शिष्य ने ९१० से ११७ तक संदिग्ध रूप से उनका अस्तित्व स्वीकार करते हुये उनमें अवाच्यता सिद्ध की। उसके उत्तर में ९१८ से १४१ तक उन में वाच्यता सिद्ध की तथा उनकी सार्थकता भी बतलाई कि ये जीव के विशेष हैं। इन्हीं में वह सामान्य पाया जाता है जो सम्यक्त्व का विषय है। उपादेय तो वही है यह हेय है यह तो ठीक पर वह उपादेय रहता तो इन्हीं में है। अतः मानना तो इन्हें भी पड़ेगा। सम्यक्त्व का विषय न सही, ज्ञान का विषय तो है ही। ज्ञानियों के ज्ञेय तो हैं ही। अत: भाई इन्हें अवश्य मान | आचार्य अमृतचन्द्रजी नौ पदार्थों में वाच्यता सिद्ध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें विशेष जीव का कथन करना इष्ट है । यह विषय चल रहा है। विषय लम्बा-लाबा चलने के कारण अनुसंधान को कभी नहीं भूलना चाहिये अन्यथा आप तत्त्व का रहस्य न पा सकेंगे। यहाँ तक तो पिछली बात पूरी हुई । अब शिष्य कहता है कि अच्छा महाराज यह है भी
और इनमें शुद्ध रहता भी है यह तो ठीक पर श्रीसमयसारजी में इनको हेय तो कहा है। आप भी पहले नं. ९०५ की प्रथम पंक्ति में इनकी हेयता स्वीकार कर चुके हैं। और अब भी कर रहे हैं। जिस प्रकार हवेली में से कूड़ा बाहर फेंकते हैं उसी प्रकार ये तो शुद्ध जीव में कूड़ा है। हमें हबेली में तो रहना है। कूड़े को जानकर क्या करेंगे। पहले जानें फिर इनकी उपेक्षा करें यह व्यर्थ की सरदर्दी नहीं तो और क्या है? अतः मेरी राय में तो उनका कहना व्यर्थ-सा ही है। इस प्रकार वह पुनः इनमें अवाच्यता कहेगा और गुरुदेव फिर इनमें वाच्यता सिद्ध करेंगे। शिष्य पक्का निश्चयाभासी है। ऐसा शुद्ध का नशा चढ़ा हुआ है कि नौ पदार्थों की बात सुनना ही नहीं चाहता। कहता है शुद्ध की बात करो-अशुद्धता की क्या कथा?
दूसरी बार नौ पदार्थों में वाच्यता की सिद्धि ९४२ से ९४४ तक कैश्चित्तु कलप्यते मोहद्वक्तव्यानि पटानि न । हेयानीति यतस्तेभ्यः शुद्धमन्यत्र सर्वतः || २२ ॥