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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक २६१ भावार्थ-शिष्य का पहला प्रश्न था कि क्या ९ तत्व हैं तो कहते हैं कि हैं । दूसरा प्रश्न था कि क्या नौ तत्त्व नहीं हैं तो कहते हैं कि ऐसा नहीं है। तीसरा प्रश्न था कि क्या नौ तत्त्व क्रम से हैं तो कहते हैं कि ऐसा भी नहीं है। चौथा प्रश्न था कि क्या नौ तत्त्व और शुद्ध इकट्ठे हैं तो कहते हैं कि हाँ इकट्ठे हैं पर वे सर्वथा भिन्न-भिन्न प्रदेश रूप नहीं है जो एक को ग्रहण कर लिया जाम और दूसरे को छोड़ दिगामायामा जो तुमने यह कहा था कि शुद्ध-अशुद्ध एक ही पदार्थ के दो परिणमन इकट्ठे नहीं रह सकते उसका उत्तर यह है कि हम शुद्ध-अशुद्ध परिणमन की बात ही नहीं कहते।शुद्ध-अशुद्ध परिणामन तो हम भी एक पदार्थ में एक साथ नहीं मानते-क्रमशः ही मानते हैं पहले अशुद्ध फिर शुद्ध। पर भाई यहाँ पर्याय की शुद्धता-अशुद्धता का प्रश्न ही कहाँ है यहाँ तो वस्तु द्रव्य दृष्टि से शुद्ध है। पर्यायदृष्टि से अशद्ध है। उस पर्याय की अशुद्धता में शुद्ध-अशुद्ध दोनों पर्यायें गर्भित हैं। तत्त्व सामान्य रूप से शुद्ध है और उसका परिणमन नौ तत्त्व रूप हो रहा है यह विशेष है। अशुद्ध है। दोनों परस्पर सापेक्ष हैं द्रव्य बिना नौ पदार्थ नहीं। नी पदार्थ बिना द्रव्य नहीं। शुद्ध-अशुद्ध शब्द परस्पर विरोधी दीखते हैं पर विरोध नहीं है क्योंकि एक द्रव्य रूप है दूसरा पर्याय रूप है। सत् परस्पर सापेक्ष है। वस्तु दोनों की एक है। नासिद्धानन्यथासिद्धिस्तद्वयोरेकवस्तुतः । यद्विशेबेऽपि सामान्यमेकमात्र प्रतीयते ॥ ९१९॥ अर्थ-उन दोनों में अनन्यथा सिद्धि असिद्ध नहीं हैं अर्थात् उन दोनों की परस्पर सिद्धि सिद्ध ही है क्योंकि उन दोनों का एक वस्तु है जिससे विशेष में सामान्य त्रिकाल एकरूप शुद्ध स्वरूप को धारण करने वाला प्रतीत किया जाता भावार्थ-शुद्ध कहीं नौ तत्वों से सर्वथा भिन्न नहीं है। वस्तु तो दोनों की एक ही है। बात यह है कि उसका विशेष रूप अनुभव न करके सामान्यमात्र एक रूप अनुभव किया जाता है तो वही शुद्ध रूप से प्रतीति में आने लगती है। विशेष को गौण कर देते हैं। तद्यथा नवतत्त्वानि केवलं जीवपदगलौ । स्वद्रव्याद्यैरन्यत्ताद्वस्तुतः कर्तृकर्मणोः ॥ ९२० ॥ अर्थ-वह इस प्रकार कि नौ तत्त्व केवल जीव और पुद्गल हैं। अपने द्रव्यादिकों (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव) द्वारा वस्तुपने से कर्ता और कर्म में अनन्यत्व है ( अभिन्नता) है अर्थात् वस्तु स्वयं कर्ता है और नौ तत्त्व उसके कार्य हैं। भावार्थ-अब उसे यह समझाते हैं कि एक जीव भिन्न द्रव्य हैं। एक पुद्गल भिन्न द्रव्य है। दोनों अनादि से भित्रभित्र हैं। उनका परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे को निमित्त मात्र बनाकर स्वयं विकार रूप अर्थात् नैमित्तिक भाव रूप-नौ तत्त्व रूप परिणमन करते हैं। स्वयं कर्ता बनते हैं और अपने उस नौ प्रकार के परिणमन को कर्म बनाते हैं। दोनों, द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव से अपने-अपने चतुष्टय में काम करते हैं। दोनों स्वयं अपने-अपने परिणामों से अभिन्न हैं। एकमेक है। ऐसा नहीं है कि एक द्रव्य का कुछ अंश शुद्धभाग रूप है और कुछ अंश नौ तत्त्व रूप है या ऐसा भी नहीं है कि जीव तो शुद्ध रूप है और नौ तत्त्व माया रूप या पुद्गल रूप या अन्य द्रव्य के अंश रूप हैं किन्तु जीव आर पुद्गलदानों भिन्न-भित्र अपनी-अपनी ना तत्व रूप पयायों के स्वय कत्ता स्वय कर्मपन से है। ताभ्यामन्यत्र नैलेषां किंचिद् दव्यान्तरं पृथक । न प्रत्येकं विशुद्धस्य जीवस्य पुगलस्य च ॥ १२१।। अर्थ-उन दोनों जीव और पुद्गल से भिन्न इन नौ पदार्थों में कोई अन्य द्रव्य जुदा नहीं है और सर्वथा भिन्न अकेले शुद्ध जीव और सर्वथा भिन्न अकेले शुद्ध पुद्गल के भी यह नौ तत्त्व नहीं हैं। भावार्थ-(१) एक तो ऐसा होता है कि जैसे दो कागज भिन्न-भिन्न हैं और उन्हें गोंद से जोड़कर इकट्ठा कर दिया जाता है। सो उस प्रकार जीव शुद्ध भिन्न रक्खा हो, पुदगल शुद्ध भिन्न रक्खा हो, किसी तीसरे द्रव्य से दोनों को मिलाकर नौ तत्त्व उत्पन्न होते हैं ऐसा नहीं है और ( २) जैसे सिद्ध में एकला शुद्ध जीव रक्खा है और पुद्गल में एक शुद्ध पुद्गल परमाणु रक्खा है इस प्रकार ये दोनों सर्वथा शुद्ध हों और नौ तत्त्व उत्पन्न कर देते हों ऐसा भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो धर्म द्रव्य भी नौ तत्व उत्पन्न कर देता। तो फिर ये नौ तत्व कैसे उत्पन्न होते हैं उसका उत्तर अगले श्लोक में देते हैं
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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