SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६०. ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी शंका उपसंहार - इसलिये न्याय से अर्थात् उपर्युक्त युक्तियों से अन्य गति न होने से अर्थात् और कोई मार्ग न रहने से यही सार निकलता है कि शुद्ध सम्यक्त्व का विषय है। उस शुद्ध का वाचक जो कोई भी (शुद्ध) नय है वह ही कहने योग्य है। व्यवहार नय और उस विषय भूत नौ पदार्थों के कहने से क्या लाभ? आखिर घुमा-फिराकर उसने वही बात कही कि एक शुद्ध का ही उपदेश करो-इन नौ के उपदेश से क्या लाभ ? __ भावार्थ ११० से ११७ तक-जीव जैसे अनादि से स्वतः सिद्ध स्वभाव (सामान्य) को धारण किये हुये है। वैसे ही वह अनादि से नौ पदार्थ रूप भी परिणमन कर रहा है (विशेष ) इस प्रकार एक ही साथ जीव में दो पद्धखे-(पहलूधर्म) हैं। अध्यात्मक में सामान्य को शुद्ध कहते हैं। नौ पदार्थों को अशुद्ध कहते हैं। इस प्रकार नहीं समझने वाले शंकाकार ने नीचे के चार प्रश्न उपस्थित किये हैं: (१) क्या जीव में उपरक्ति (अशुद्धता) है ? (२) क्या जीव में अनुपरक्ति (शुद्धता ) है ? (३) क्या जीव में क्रमपूर्वक शुद्धता-अशुद्धता है ? (४) क्या अक्रमपूर्वक शुद्धता-अशुद्धता है ? इन चार शंकाओं की पुष्टि के लिये वह नीचे प्रमाण दलीलें (युक्तियाँ ) करता है। (१) यदि अशुद्धता है तो यह सदा रहनी चाहिये और उसके कार्यभूत नव पद भी सदा रहने चाहिये फिर उन्हें 'हेय' क्यों कहते हो, और उन्हें हेय तो कहा ही है क्योंकि सम्यक्त्व का विषय केवल शुद्ध तत्त्व है।(२) जो जीव में अशुद्धता का असद्भाव मानने में आवे अर्थात् सर्वथा शुद्धता मानने में आवे तो वहाँ अशुद्धता तो है ही नहीं फिर जो न होय उसका अनादर कैसे बन सके ? कारण कि जो होय उसका अनादर हो सके। तथा जीव में सर्वथा शुद्धता मानने से नव पदार्थ ही नहीं बन सकते फिर यह कहना है कि नौ पद हेय है। सम्यक्त्व का विषय नहीं हैं"कैसे बनेगा? (३) जो जीव में क्रम पूर्वक शुद्धता-अशद्धता है। जैसे पहले अज्ञानी फिर केवली ऐसा कहोगे तो जिस समय वह शद्ध है उस समय उपादेय होगा और जिस समय अशद्ध है उस समय स्वयं हेय होगा फिर उस अशुद्धता के कहने से क्या (४) जो अक्रमपूर्वक ( एक साथ ) शुद्धता-अशुद्धता दोनों सर्वधा भिन्नभिन्न हैं तो भी शुद्धता उपादेय है। अशुद्धता हेय है-उस हेय के कहने से क्या लाभ ? दूसरी बात यह है कि एक वस्तु के शुद्ध-अशुद्ध दोनों परिणमन एक साथ नहीं हो सकते फिर शुद्ध उपादेय-अशुद्ध हेय-यह चर्चा ही व्यर्थ है। इसलिये "द्रव्य शुद्ध ही है" ऐसा कहो और उसकी वाचक' अकेली शुद्ध नय' को ही स्वीकारो। अशुद्ध द्रव्य रूप नौ पदार्थ और उसका वाचक व्यवहार नय नहीं कहना चाहिये। पहले शंकाकार ने १०४ में व्यव पदार्थों का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया था। ग्रन्थकार ने ९०५ से ९०९ तक उनका अस्तित्व सिद्ध किया। अब उसने उस व्यवहार नयको तथा उसके विषयभूत नौ पदार्थों को अवाच्य(नकहने योग्य) कहा । अब ग्रंथकार उसके उत्तर में आगे ९१८ से ९४१ तक (तथा और आगे ९४२ से १५६ तक प्रश्नोत्तर रूप में) उसे यह समझायेंगे कि नौ पदार्थ वास्तव में हैं पर विशेष रूप जीव की पर्यायें होने से वे सम्यक्त्व का विषय नहीं है और वह शद्ध भी जो सम्यक्त्व का विषय है सर्वथा भिन्न नहीं है किन्त उन्हीं में अन्वय रूप से पाया जाता है। नव तत्त्वों को सर्वथा छोडकर अनुभव नहीं किया जाता किन्तु इनको गौण करके शुद्ध जीव का अनुभव किया जाता है। इसलिये हेय रूप होने पर भी उनमें वाच्यता सिद्ध है। उनका ज्ञान कार्यकारी है। श्री अमृतचन्द्र आचार्य गुरुदेव ने पहले उनका अस्तित्व सिद्ध किया था। अब उनमें वाच्यता सिद्ध करेंगे अर्थात् वे व्यर्थ नहीं हैं किन्तु कथन करने योग्य हैं, जानने योग्य है। जीव की पर्याय हैं अभूतार्थ होने पर भी, सम्यक्त्व का विषय न होने पर भी गधे के सींगवत् नहीं हैं किन्तु ज्ञानियों के ज्ञान के ज्ञेय हैं:समाधान नौ पदार्थों में वाच्यता की सिद्धि ९१८ से १४१ तक नैवं त्वनन्यथासिद्धेः शुद्धाशुद्धत्तयोर्द्वयोः । विरोधेऽप्यविरोधः स्यान्मिथ: सापेक्षतः सतः ॥१८॥ प कहते हैं वैसा नहीं है किन्त शाद(सामान्य) और अशदा विशेष रूप नौ तत्व दोनों की अनन्यथा सिद्धि है अर्थात् एक-दूसरे के बिना सिद्ध नहीं होते हैं अर्थात् परस्पर सापेक्ष ही दोनों सिद्ध होते हैं। शुद्धअशुद्ध दोनों में विरोध दीखने पर भी अविरोध है क्योंकि सत् की परस्पर सापेक्षता है अर्थात् सत् शुद्धाशुद्ध है अर्थात् सामान्यविशेषात्मक है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy