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________________ २५८ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी भली-भांति सिद्ध होता है और उपरक्ति रूप उपाधि के सिद्ध होने से इसके सद्भाव और असद्भाव से नौ पदार्थ भी सिद्ध होते हैं। गुरुदेव का प्रयोजन केवल उपरक्ति की सत्ता मात्र या उसका उपाधिपना सिद्ध करने का नहीं था किन्तु इस युक्ति के आधार से नौ पदार्थों की सत्ता सिद्ध हो जाय यह प्रयोजन था जो सिद्ध हो गये । अब विषय की संकोचते हैं: साध्य की सिद्धि रूप उपसंहार सोपरक्तेरुपाधित्वान्नादरश्चेद्विधीयते I क्व पदानि नवामूनि जीवः शुद्धोऽनुभूयते ॥ ९०९ ॥ अर्थ - यदि उपरक्ति की उपाधि होने से आदर ही न किया जाय अर्थात् अस्तित्व ही न माना जाय तो ये नौ पदार्थ कहाँ रहेंगे अर्थात् इनका भी अस्तित्व सिद्ध न होगा और इनका अस्तित्व सिद्ध न होने पर शुद्ध जीव का अनुभव 'कहाँ होगा ? क्योंकि इन नौ विशेषों में ही तो सामान्य रहता है। अर्थात् उपरक्ति न मानने पर नौ पद रूप विशेष नहीं बनेगा और उसके न बनने पर सामान्य भी न रहेगा फिर सामान्य का अनुभव रूप सम्यक्त्व कैसे होगा। अतः नौ तत्व अवश्य स्वीकार करने चाहिये अर्थात् व्यवहार नय अवश्य मानना चाहिये। शिष्य ने ९०४ में जो निश्चय का अस्तित्व मानकर व्यवहार के अस्तित्व से ही इन्कार किया था सो यहाँ तक व्यवहार का अस्तित्व सिद्ध किया । भावार्थ - उपरक्ति कारण है और नी पद कार्य हैं क्योंकि उपरक्ति के अस्तित्व में ही उसके सद्भाव और असद्भाव से होने वाले ९ पदार्थ सिद्ध होंगे (देखिये आगे ९१३ ) इस प्रकार उपरक्ति की सत्ता रूप कारण से ९ पदार्थों की कार्य रूप सत्ता सिद्ध की और उनकी सत्ता क्योंकि विशेष रूप पड़ती है और विशेष बिना सामान्य के रह नहीं सकता। इसलिये शिष्य से कह रहे हैं कि अरे जिस शुद्ध को तू सम्यक्त्व का विषय मानता है वह तो विशेष निरपेक्ष शून्य हो जायेगा। अतः भाई नौ पद भी मान । तभी इनको गौण करके सामान्य का अनुभव हो सकेगा। सामान्य के अनुभव रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये भी इनका मानना जरूरी है। नौ पदार्थों की सिद्धि हो गई। अगली भूमिका - ९०१ से १०३ तक नौ पदार्थों का अस्तित्व कहा। उस पर शिष्य ने ९०४ में उन नौ तत्वों के अस्तित्व को मानने से इन्कार कर दिया। गुरुदेव ने ९०५ से ९०९ तक उन नौ तत्वों की सिद्धि की। अब शिष्य फिर कहता है कि वे नौ तत्व कोई वास्तविक चीज है भी या नहीं। वे वास्तविक तो हैं नहीं क्योंकि वे नाशवान् हैं। सम्यक्त्व का विषय नहीं हैं। यदि अवास्तविक हैं- अभूतार्थ हैं तो उनके कहने से क्या लाभ ? भूतार्थ को तो कहना चाहिये क्योंकि उसके आश्रय से धर्म होता है । व्यर्थ की चीज की कथन करने से क्या लाभ ? पहले ९०४ की शंका में तो उसने उनके अस्तित्व से ही इन्कार कर दिया था। अब उनको कुछ संदिग्ध-सा, अभूतार्थ सा मानकर उनकी वाच्यता को खत्म करके अवाच्यता सिद्ध करना चाहता है: शंकाकार द्वारा नौ पदार्थों में अवाच्यता की सिद्धि ९१० से ९१७ तक ननूपरक्तिरस्तीति किं वा नास्तीति तत्त्वतः । उभयं नोभयं किं वा तत् क्रमेणाक्रमेण किं ॥ ११० ॥ शंका - (१) क्या उपरक्ति (राग) वास्तव में (सत्तारूप ) है ? या ( २ ) क्या उपरक्ति वास्तव में सत्तारूप नहीं है। या ( ३ ) क्या वह उपरक्ति क्रम से उभय रूप है। पहले उपरक्ति फिर शुद्ध तत्त्व, फिर उपरक्ति फिर शुद्ध तत्वऐसे हैं ? या ( ४ ) क्या वह उपरक्ति अक्रम से अनुभय रूप है ( अर्थात् एक साथ उपरक्ति तथा शुद्ध तत्व अत्यन्त भिन्न-भिन्न रूप से दोनों हैं ? [ उपरक्ति का अर्थ राग है जैसे पहले कह कर आये हैं ]। अस्तीति चेत्तदा तस्यां सत्यां कथमनादर । नास्तीति चेदसत्त्वे ऽस्याः सिद्धो नानादरो नयात् ॥ ९११ ॥ शंका चालू आधे का अर्थ-यदि उपरक्ति (राग) है तो उस उपरक्ति रूप कारण के होने पर नौ पदार्थ रूप कार्य तो अवश्य रहेगा फिर उन नौ पदार्थों में अनादर- अग्राह्यता अस्वीकारता - अनुपादेयता हेयता कैसी ? भावार्थ-यदि उपरक्तिरूप कारण है तो उसके कार्यभूत नौ पदार्थ भी सदा रहेंगे। फिर उन्हें सम्यक्त्व का विषय क्यों नहीं मानते हो 'हेय' क्यों कहते हो ? अभूतार्थ क्यों कहते हो ?
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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