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द्वितीय खण्ड /चौथी पुस्तक
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उनका अस्तित्व कहाँ ? सम्यक्त्व का विषय तो Pure माल है। यहाँ सम्यक्त्व की या उसके विषय की बात नहीं चल रही है। किन्तु व्यवहार नय और उसके अस्तित्व सिद्धि की बात चल रही है। शंका में शिष्य ने नौ पदार्थों के अस्तित्व से इन्कार किया था उनकी सिद्धि कर रहे हैं और उसकी सिद्धि के अनुसंधान में यह कह रहे हैं कि व्यवहार नय यह नौ पदार्थ सम्यक्त्व का विषय नहीं पर वे हैं जरूर । उनका ज्ञान जरूर करना है। सम्यक्त्व का विषय न होने से उन्हें उड़ाया नहीं जा सकता। यह विषय चल रहा है। विषय क्या चल रहा है इसका बराबर ध्यान रखना चाहिये। अब वह व्यवहार नय अर्थात् नौ पदार्थ किस प्रकार विद्यमान हैं यह बताते हैं
तद्यथानादिसन्तानबन्धपर्यायमात्रत:
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एको विवक्षितो जीवः स्मृता नव पटा अमी ॥ २०६ ॥
अर्थ- वह व्यवहार नय इस प्रकार विद्यमान है कि जब एक ही जीव अनादि बन्ध पर्याय मात्र से विवक्षित होता है, तब यह नौ पद जीव रूप ही माने गये हैं ।
भावार्थ- द्रव्य दृष्टि का विषयभूत जो शुद्ध जीव है। वह यदि शुद्ध दृष्टि की विवक्षा न रखकर अनादि सन्तान रूप से चली आई नैमित्तिक पर्याय की दृष्टि से देखा जाता है तो फिर वही जीव इन नौ भेष रूप कहा गया है। अतः इस दृष्टि से वही जीव इन नौ रूप भी है। अतः जिस प्रकार वह निश्चय सामान्य सत् रूप है उसी प्रकार यह व्यवहार भी तो विशेष सत् रूप है। अतः अभूतार्थं होने पर भी इसका सर्वथा लोप तो नहीं किया जा सकता।
किञ्च पर्यायधर्माणो नवामी पदसंज्ञकाः । उपरक्तिरुपाधिः स्यान्नात्र पर्यायमात्रता ॥ १०७ 11
अर्थ- - और यह नौ पदार्थ पर्याय धर्म हैं। इनकी उत्पत्ति में पर्याय मात्रता कारण नहीं है किन्तु उपरक्ति रूप उपाधि (राग) कारण है !
भावार्थ-धर्म द्रव्य है । उसकी स्वभाव पर्याय भी है किन्तु उसमें नौ तत्व नहीं हैं। इसी प्रकार धर्म द्रव्यवत् यदि जीव अनादि से सर्वथा शुद्ध ही होता तो फिर इसमें भी नौ पदार्थ न बनते । इसलिये नौ पदार्थ बनने का कारण पर्याय मात्र का होना नहीं है किन्तु इन नौ पर्यायों की उत्पत्ति में उपरक्ति कारण है। उपरक्ति राग को कहते हैं। राग के कारण, नौ में कुछ पर्यायें राग के सद्भाव रूप कारण से बनी हैं और कुछ पर्यायें राग के अभाव रूप कारण से बनी हैं। इसलिये इन नौ की उत्पत्ति में उपरिक्त कारण है। उपाधि का अर्थ होता है परिग्रह अर्थात् जो चीज मूल वस्तु की तो न हो बाहर से आई हुई हो। उपरक्ति (राग) को उपाधि इसलिये कहते हैं क्योंकि यह मूल जीवास्तिकाय में नहीं है किन्तु आगन्तुक भाव है। क्षणिक है। आई हुई है। जभी तो इसका नाश हो जाता है। इस प्रकार ऊपर की पंक्ति में नौ पदार्थ सिद्ध किये और नीचे की पंक्ति में उनकी उत्पत्ति का कारण उपरक्ति (राग) बतलाया। उपरक्ति कारण है और नौ पद कार्य है यह आगे भी सर्वत्र ध्यान रहे। अब कोई उपरक्ति (राग) का ही अस्तित्व न माने तो उसके लिये उपरक्ति का अस्तित्व सिद्ध करते हैं:
नात्रासिद्धमुपाधित्वं सोपरवतेस्तथा स्वतः ।
यतो नवपदव्याप्तमव्याप्तं पर्ययेषु तत् ॥ २०८ ॥ *
अर्थ- उन नौ तत्त्वों में उपरक्ति का उपाधिपना असिद्ध नहीं है किन्तु स्वतः सिद्ध है क्योंकि वह उपरक्ति रूप उपाधि जीव की नौ पर्यायों में से कुछ पर्यायों (जीव, अजीव, आस्त्रव - बन्ध - पुण्य-पाप ) में व्याप्त है और कुछ पर्यायों ( संवरनिर्जरा मोक्ष) में अव्यास है ।
भावार्थ - इसमें उपरक्ति (राग) और उसका उपाधिपना सिद्ध किया गया है। उपरक्ति है यह तो प्रत्यक्ष ही है। वह उपाधि है इसमें यह युक्ति है कि जो चीज़ मूल की नहीं होती वह नाश हो जाया करती है। सो आचार्य कहते हैं कि देखो यह उपरक्ति ९ पर्यायों में से कुछ में तो पाई जाती है कुछ में नहीं पाई जाती इससे इसका अस्तित्व तथा उपाधिपना
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मूल श्लोक में कुछ अशुद्धि मालूम पड़ती है पर अर्थ हमने पूर्व अपर अनुसंधान के आधार पर ठीक खेंच लिया है। संस्कृत जानने वाले श्लोक की शुधि पर विचार करें।