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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
का विषय है जीव की विशेष रूप नौ पर्यायों में ही पाया जाता है। इसलिये इन ९ पदार्थों का ज्ञान भी कार्यकारी है। अत: वे भी वाच्य हैं। हाँ उनका आश्रय कार्यकारी नहीं है। सामान्य का निरूपण पहले कर आये हैं। इन नव पदार्थों का निरूपण अब करेंगे। उसके लिये श्री अमृतचन्द्रजी महाराज भूमिका तैयार कर रहे हैं।
शंका ननु शुद्धनयः साक्षारित सम्यक्त्वगोचरः ।
एको वाच्यः किमन्येन व्यवहारनयेज चेत् ॥ ९०४ ।। शंका-शुद्ध नय साक्षात् सम्यक्त्व का विषय करने वाला है। वह एक ही कहना चाहिये अर्थात् सामान्य को ही मानना चाहिये। दूसरी व्यवहार नय अर्थात् उसके विषय भूत नौ पदार्थों के मानने से क्या लाभ ? यहाँ शिष्य जीव की विशेष रूप नौ पर्यायों का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता । सर्वथा सामान्य को अर्थात् विशेष निरपेक्ष शुद्ध आत्मा की कल्पना करके प्रश्न कर रहा है।
भावार्थ-हम आपको यह कह आये हैं कि भेद दृष्टि से शुद्ध नय वाचक है और सामान्य वाच्य है। अभेद दृष्टि से दोनों एक ही हैं। इसी प्रकार भेद दृष्टि से व्यवहार नय वाचक और नौ पदार्थ वाच्य हैं किन्तु अभेद दृष्टि से एक ही हैं। इस नियम को ध्यान में रखकर अर्थ समझ में आयेगा। सांख्यमत विशेष निरपेक्ष सामान्य मानता है। उसके यहाँ पर्याय कोई चीज नहीं। उस सामान्य को सर्वथा शुद्ध त्रिकाल मुक्त मानता है और उसको सम्यक्त्व का विषय मानता है।यहाँ शिष्य उन विचारों से मिलता-जुलता है। निश्चयाभासी है। कहता है कि एक शुद्ध नय अर्थात् सामान्य ही मानना ठीक है। व्यवहार नय अर्थात् नौ पदार्थ के मानने से क्या लाभ? अपनी बात में युक्ति भी देता है कि श्री समयसार परमागम में सामान्य कोही सम्यक्त्व का विषय माना है नौ पदार्थों को तो अभूतार्थ कहा ही है। अभूतार्थ शब्द के अर्थ को उसने दुरुपयोग किया है। अभूतार्थ का अर्ध उसने अभाव कर दिया है। अभूतार्थ का अर्थ अभाव नहीं है किन्तु गौण है क्योंकि नौ पदार्थों के लक्ष से राम की उत्पशि होती है जो माया है इसलिये उन्हें सम्यक्त्व का विषय नहीं माना है। उसी आधार से उसने नौ पदार्थों को उड़ा ही दिया है। आचार्य महाराज को नौ पदार्थों की सिद्धि करनी थी क्योंकि विशेष जीव का कथन करना इष्ट है। अतः शिष्य के मुख से नौ तत्वों के अभावरूप शंका उपस्थित कराई है ताकि विषय सुन्दरता से प्रारम्भ हो सके।
समाधान ९०५ से ९०९ तक सत्यं शुद्धनयः श्रेयान न यानितरो नयः ।
अपि न्यायबलादरित नयः श्रेयानिवेतरः ||९०५॥ अर्थ-शद्धनय कल्याणकारी है। उपादेय है। सम्यक्त्व का विषय है और दूसरी व्यवहार नय कल्याणकारी नहीं है। हेय है। सम्यक्त्व का विषय नहीं है यह तो सत्य है पर युक्ति के आधार पर दूसरी व्यवहार नय निश्चय नय की तरह विद्यमान तो है, उसका अस्तित्व तो है। अर्थात् जिस प्रकार सामान्य है उसी प्रकार विशेष भी है।
भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि शुद्ध नय सम्यक्त्व है और नौ पदार्थ अभूतार्थ हैं यह तो ठीक है पर भाई अभूतार्थ का यह अर्थ तो नहीं कि उनका अस्तित्व ही नहीं है। 'अर्पितानर्पितसिद्धेः'। व्यवहार नय अर्थात् नौ पदार्थ जीव की पर्यायें हैं। वास्तविक चीज़ है कोई अवस्तु तो नहीं। इस युक्ति से वे हैं जरूर । अभूतार्थ तो इसलिये कहा कि उस दृष्टि में राग होता है। सम्यक्त्व की बाधक है पर उसके अस्तित्व से तो इंकार नहीं किया जा सकता। यहाँ व्यवहार नय को 'श्रेयान् इव अस्ति' कहकर उपादेय नहीं कहा है किन्तु उसके विषयभूत नौ पदार्थों के अस्तित्व को निश्चय के अस्तित्ववत् स्वीकार किया है। जोर 'श्रेयान्' शब्द पर नहीं है किन्तु 'अस्ति' शब्द पर है। उपादेय तो परमार्थ को विषय करने वाला मात्र शुद्ध नय ही है। व्यवहार नय नहीं यह तो श्लोक के प्रथम चरण में ही कहा जा चुका है। ऊपर के श्रेयान् शब्द का अर्थ उपादेय है। नीचे के श्रेयान् शब्द का अर्थ निश्चय नय है। यद्यपि व्यवहार नय जो पर्याय की द्योतक है वह उपादेय तो नहीं है पर पर्याय भी अवस्तु तो नहीं है। द्रव्य की ही अवस्थायें हैं। इसलिये उनका ज्ञान भी कार्यकारी है-अकार्यकारी नहीं। हाँ उसका आश्चय कार्यकारी नहीं है। वे ज्ञानी के ज्ञान का विषय है। ज्ञेय हैं। उपादेय न होने के कारण सम्यक्त्व का विषय नहीं है। क्योंकि वे तो निमित्त-नैमित्तिक संबन्ध से होने वाली वस्तु है। शुद्ध द्रव्य में