________________
द्वितीय खण्ड /चौथी पुस्तक
है | अतः इसको सविकल्पक कहा है। यह दूसरी पंक्ति का पेट है। इस सूत्र में दोनों नयों का स्वरूप है-लक्षण है क्योंकि लक्षण का परिज्ञान हुये बिना किसी वस्तु का प्रयोग नहीं कर सकते। अब इन नयों का वाच्य बतलाते हैं: -
नयों का वाच्य ९०३ से ९०९
वाच्यः शुद्धनयस्यास्य शुद्धो जीवश्चिदात्मकः । शुद्धादन्यत्र जीवाला पदार्थास्ते नव स्मृताः ॥ २०३ ॥
अर्थ - इस शुद्ध नय का वाच्य चैतन्य (गुण) स्वरूप शुद्ध जीव (सामान्य) है। शुद्ध से अन्य में ( अर्थात् व्यवहार नय के विषय में ) वे जीवादिक नव पदार्थ ( जीव की विशेष दशायें) विषय माने गये हैं।
२५५
भावार्थ - आध्यात्म में एक वस्तु का दूसरी वस्तु में कुछ कार्य बतलाने को तो नयाभास कहते हैं। केवल एक द्रव्य के सामान्य को बताने वाली को निश्चय नय कहते हैं और उसी द्रव्य के परिणमन को बताने वाली नय को व्यवहार नय कहते हैं। जिनको इस नियम का ही विश्वास नहीं वे तो अध्यात्म के पात्र ही नहीं। दो द्रव्यों की नयों में ही चक्कर काटते रहें - वे तो केवल निमित्तनैमित्तिक का ज्ञान कराने के लिये थीं । मोक्षमार्ग से उनका कुछ प्रयोजन नहीं। शुद्ध शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक पर्याय में शुद्ध - अशुद्ध । दूसरा सामान्य शुद्ध, पर्यायें सब अशुद्ध । यहाँ शुद्ध शब्द सामान्य अर्थ में है। सो कहते हैं कि निश्चय का विषय तो सामान्य जीव है जो शुद्ध है । अब कुछ उस का स्वरूप भी बताना चाहिये था। सो कहते हैं बस चेतन-चेतन-चेतन शुद्धज्ञानदर्शनआत्मक जीव उसका वाच्य है। यहाँ शुद्ध का अर्थ गुण है और अन्य सब गुण चेतन होने के कारण इन दो गुणों में ही अन्तर्भूत हैं । ( शुद्ध का अर्थ गुण है इसके लिये श्री द्रव्य संग्रह गाथा ६ की नीचे की पंक्ति देखिये और चेतन का अर्थ ज्ञान दर्शन है और शेष सब गुण उसमें अन्तर्भूत हैं इसके लिये श्री समयसार (गा. २९८, २९९ देखिये । इस ग्रंथ में जीव का सामान्य स्वरूप जो पहले नं. ७९८ से ८०० तक निरूपण हो चुका वही इस निश्चय नय का वाच्य है । यह प्रथम पंक्ति का पेट है (B ) 'शुद्धात् अन्यत्र ' शब्द का अर्थ व्यवहार नय है। 'जीवाद्याः ' का अर्थ नौ पदार्थ हैं। यहाँ नौ के नौ पदार्थ जीव की पर्याय रूप ग्रहण करते हैं। यह अर्थ नहीं है जो पहले नं. ७९७ में किया था कि जीव- अजीव सामान्य, शेष विशेष । किन्तु नौ की नौ जीव की पर्यायें हैं। यहाँ नौ का वह अर्थ है जो श्री समयसारजी में है या श्री पंचास्तिकाय गा. १०९ से १५३ में है । हमारे यहाँ सात या नौ तत्त्व के अर्थ करने की दो पद्धतियां हैं। एक तो जीव-अजीव सामान्य द्रव्य और शेष उनकी पर्यायें । यह अर्थ श्री द्रव्य संग्रहकार ने तथा श्री सर्वार्थसिद्धिकार आदि ने किया है तथा दूसरा अर्थ यह है कि नौ की नौ पर्यायें हैं। श्री कुन्दकुन्द आचार्य देव ने इस अर्थ की प्रधानता रक्खी है। श्री अमृतचन्द्र आचार्य देव ने दोनों अर्थों को जहाँ जो योग्य था- अर्थ किया है। सो गुरुगम से जहाँ जो अर्थ हो वह भली-भांति जान लेना चाहिये अन्यथा अर्थ का अनर्थ तो हो ही जायेगा किन्तु जीव भी उसके मर्म से कोरा रह जायेगा। यहाँ 'जीवाद्या': पद का वह अर्थ है जो श्री पंचास्तिकाय में विस्तार से निरूपित है। 'पदार्थाः ' पद का अर्थ पर्यायें हैं। तत्व कहो या पदार्थ कहो या पर्याय कहो एक है क्योंकि यहाँ नौ के नौ पदार्थ पर्याय रूप हैं। 'नव' का अर्थ नौ होता है। जीव का परिणमन तो अनन्तों प्रकार का होता है पर जाति भेद से नौ रूप ही होता है। 'स्मृताः ' पद का अर्थ माने गये हैं। आगम में कहे गये हैं यह हैं । इस प्रकार व्यवहार नय का विषय जीवादिक नौ तत्व हैं अर्थात् जीव की नौ पर्यायें हैं यह दूसरी पंक्ति का पेट हैं। इस प्रकार इस सूत्र में दोनों नयों का वाच्य बतलाया गया है। भेद दृष्टि से वाच्य वाचक भेद है। अभेद दृष्टि से दोनों एक हैं। यह इस प्रकरण में बराबर ध्यान रहे ।
बात
९०२, १०३ का सार - पर्याय वह द्रव्य की ही अवस्था ( भेद) है। कहीं अवस्तु तो नहीं है। उसको व्यवहार कहने का कारण यह है कि भेद दृष्टि में निर्विकल्प दशा नहीं होती। सरागी को विकल्प, रहा करता है। इसलिये इस श्लोक में " व्यवहार नय को भेद रूप और विकल्प उत्पन्न करने वाली होने से सविकल्पक कहा है। जहाँ तक रागादिक मिटें नहीं वहाँ तक भेद को गौण करके अभेद जो निश्चय नय है उसको आश्रय करके निर्विकल्प अनुभव करने को ज्ञानी पुरुषों ने कहा है। इसलिये निश्चय नय को अभेद तथा निर्विकल्प कहा है। इस प्रकार निश्चय और व्यवहार का स्वरूप जानकर व्यवहार नय का आश्रय विकल्प उत्पन्न करने वाली होने से छोड़कर निश्चय नय जो अभेद तथा निर्विकल्पक है- उसका आश्रय करने से शुद्धता रूप कार्य होता है। दूसरे किसी प्रकार से नहीं। दूसरे वह सामान्य जो शुद्ध नय