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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अर्थ - तत्त्वपने से अर्थात् वस्तुपने से जीव शुद्ध है अर्थात् सामान्य स्वरूप को धारण करने वाला है यह तो शुद्ध नय से सिद्ध है ही पर वही जीव बद्धाबद्ध नय से अर्थात् पर्याय दृष्टि से अशुद्ध है अर्थात् नौ तत्त्वरूप है यह भी असिद्ध नहीं है अर्थात् सिद्ध ही है।
भावार्थ -- (१) हम आपको नित्यानित्य अधिकार में यह बता चुके हैं कि वस्तु जैसे स्वभाव से स्वतः सिद्ध है। वैसे ही वस्तु स्वभाव से परिणमनशील भी है। उसी नियम के आधार से जीव वस्तु भी है और परिणामी भी है। जीव वस्तु है यह यहाँ तत्त्व शब्द का अर्थ है । ( २ ) वस्तु को शुद्ध कहते हैं- परिणाम को अशुद्ध कहते हैं, यह यहाँ शुद्ध अशुद्ध शब्द का अर्थ है ( ३ ) शुद्ध नय यहाँ त्रिकाली सामान्य की द्योतक है और बद्धाबद्ध नय यहाँ शुद्ध-अशुद्ध दोनों परिणामों की अर्थात् जीव के परिणमन मात्र की द्योतक है। बद्ध रागी पर्याय को कहते हैं अबद्ध वीतरागी पर्याय को कहते हैं। जो नय बद्ध-अबद्ध अर्थात् रागी वीतरागी अर्थात् शुद्ध-अशुद्ध दोनों पर्यायों को विषय करे अर्थात् पर्याय मात्र को विषय करे उसको बद्धाबद्ध नय कहते हैं। बद्ध- अबद्ध का यह अर्थ महाराज स्वयं पहले करके आये हैं। श्री अमृतचन्द्रजी की बुद्धि का कमाल है क्या बद्धाबद्ध शब्द दिया है जो सब पर्यायों को स्पष्ट पकड़ लेता है । यदि व्यवहार नय शब्द देते तो समझने वाले को शायद सन्देह हो जाता कि शुद्ध पर्यायें भी लेनी हैं या नहीं । ( ४ ) जीव का शुद्ध (सामान्य) स्वरूप पहले ७९८ से ८०० तक सिद्ध कर आये हैं और उसके अशुद्ध स्वरूप अर्थात् नौ तत्त्वों को अब वर्णन करेंगे। आचार्य महाराज का भाव यह है कि जीव एक वस्तु है। सामान्य स्वरूप को धारण किये हुये है यह तो सिद्ध है। अर्थात् हम पहले निरूपण कर ही आये हैं पर जीव अशुद्ध भी है अर्थात् शुद्ध - अशुद्ध परिणमन भी करता है अर्थात् नौ तत्त्व रूप भी है यह भी असिद्ध नहीं है अर्थात् उसी अशुद्ध अवस्था को अर्थात् ९ तत्वों को अब हमें बतलाना है, सिद्ध करना है। इस प्रकार यह ९ तत्त्वों के कथन का भूमिका रूप प्रतिज्ञा सूत्र है। दूसरी बात वह कहना चाहते हैं कि नय भी दो प्रकार के हैं एक शुद्ध नय अर्थात् निश्चय नय! एक बाब न अर्थात व्यवहार नय । शुद्ध नय का विषय सामान्य है, अभेद है, एक है और व्यवहार नय का विषय विशेष है, भेद है, अनेक है, ९ तत्त्व हैं। एक बात यह भी है कि भेद दृष्टि से सामान्य वाच्य है शुद्ध नय वाचक है तथा विशेष वाच्य है व्यवहार नय वाचक है। पर अभेद दृष्टि से जो सामान्य है वही शुद्ध नय है और जो विशेष वही व्यवहार नय है। गुरु महाराज अगले 'कथन की भूमिका रूप इतनी बातें इस सूत्र से कहना चाहते हैं। अब विषय के कथन को प्रारम्भ करते हैं। पहले नयों का लक्षण कहते हैं ।
नयों का लक्षण
एक शुद्धयः सर्वो निर्द्वन्द्वो निर्विकल्पकः ।
व्यवहारनयोऽनेकः सइन्द्रः सविकल्पकः ॥ ९०२ ॥
अर्थ- सम्पूर्ण शुद्ध नय एक है, भेद रहित है और विकल्प (राग) रहित है। व्यवहार नय अनेक है, भेद सहित है, और विकल्प ( राग ) सहित है।
भावार्थ- मोक्षमार्ग में नय के दो भेद हैं। (A ) एक निश्चय (B) दूसरा व्यवहार ( १ ) निश्चय नय एक ही होती है उसके शुद्ध निश्चय, अशुद्ध निश्चय आदि भेद नहीं होते । ( २ ) भेद को द्वन्द्व कहते हैं। अभेद को निर्द्वन्द्व कहते हैं। निश्चयनय का विषय सामान्य है और उसमें भेद नहीं है अतः निश्चय नय को भी निर्द्वन्द्व कहा है । ( ३ ) विकल्प शब्द का अर्थ राग भी होता है और भेद भी होता है। यहाँ क्योंकि भेद अर्थ तो द्वन्द्व शब्द में आ चुका, अतः राग अर्थ है । निर्विकल्पक का अर्थ राग रहित है। निश्चय नय राग रहित होती है क्योंकि इसका विषय सामान्य । सामान्य शब्द के अगोचर है। जो कुछ आप कहेंगे वह भेद रूप पड़ेगा। सामान्य को कहने वाला कोई शब्द नहीं और राग को शब्द का आधार चाहिये। अतः यह निर्विकल्पक है। उसका विषय अनुभव गोचर हैं। यह तो प्रथम पंक्ति का पेट है। (B) (१) विधि पूर्वक भेद करने को व्यवहार कहते हैं। अतः भेद को विषय करने वाली नय को व्यवहार नय कहते हैं । ( २ ) व्यवहार नय के सद्भूत असद्भूत आदि भेद प्रभेद हैं अतः वह अनेक है । ( ३ ) इसका विषय पर्याय है। परिणाम है। नौ तत्त्व हैं और नौ तत्त्व भेद रूप हैं। अतः इसको भी भेद सहित होने वाली होने से सद्वन्द्व कहा है। ( ४ ) जिस में राग पाय जाये, उसे सविकल्पक कहते हैं। व्यवहार नय में राग होता ही है। कोई भी व्यवहार नय राग रहित नहीं