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द्वितीय खण्ड /चौथी पुस्तक
भावार्थ- पारिणामिकी का अर्थ है परिणमनशील । परका अर्थ है निमित्त अर्थात् कर्म का उदय, गुण का अर्थ है उसकी जाति जैसे क्रोध, आकार रूप क्रिया का अर्थ है उस रूप आत्मा का परिणमन करना। भाव यह हुआ कि निमित्त के आकार रूप जो आत्मा का अपनी वैभाविक शक्ति के कारण स्वतः अपने अपराध से परिणमना है, यह बंध है जैसे ज्ञान का राग रूप परिणमना बंध है और ज्ञान में उस राग के आने पर जो ज्ञान का लोकालोक प्रकाशक अपने स्वभावसे च्युत होकर अज्ञान रूप होना यह अशुद्धता है। इसी प्रकार कार्मणवर्गणाओं का ज्ञानावरणादि रूप परिणमना बद्धत्व है और उनका अपने स्वभाव से डिगकर कर्म अवस्था में आना अशुद्धत्व है। यहाँ बद्धत्व कारण है। अशुद्धत्व कार्य है। क्योंकि बंध के होने पर नियम से स्वभाव की च्युति होती ही हैं जो अशुद्धता है। बंध कारण और अशुद्धता कार्य
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बंध:
हेतुरशुद्धत्वं हेतुमच्चेति निर्णयः ।
यस्माद्वन्धं बिना न स्यादशुद्धत्वं कदाचन ।। ८९९ ॥ अर्थ प्रकार बन्धकरण है और अशुद्धता कार्य है ऐसा निर्णय है क्योंकि बन्ध के बिना अशुद्धता कभी नहीं होती है।
भावार्थ - ज्ञान में रागका आना या ज्ञान का राग रूप परिणमन करना यह तो बंध है और ज्ञान का अज्ञान रूप परिणमित होना यह अशुद्धत्व है। बद्धत्व कारण है और अशुद्धत्व कार्य है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञान निमित्त में जुड़कर रागी हुआ तभी तो अपने स्वभाव से च्युत होकर अज्ञान बना अन्यथा नहीं बन सकता था। इस प्रकार बद्धत्व कारण है और अशुद्धत्व कार्य है और यही कारण है कि बद्धत्व के बिना अशुद्धत्व नहीं होता। समय दोनों का एक ही है। किस दृष्टि से बद्ध कहते हैं और किस दृष्टि से अशुद्ध कहते हैं बस यह समझने की बात है और यही रहस्य है।
बंध कार्य और अशुद्धता कारण
कार्यरूपः स बन्धोऽरित कर्मणां पाकसम्भवात् । तत्रवाकर्षणत्वतः ॥ १०० ॥
हेतुरूपमशुद्धत्वं
अर्थ - वह बन्ध कार्य रूप है क्योंकि वह पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से होता है। अशुद्धता कारण रूप है क्योंकि वह आगे बंधने वाले नये कर्मों को खींचती है अर्थात् नये कर्मों के बंधन में निमित्त मात्र कारण है।
भावार्थ- पूर्वबद्ध कर्म का उदय कारण और राग कार्यं। इस प्रकार तो बंध कार्य हुआ । केवल राग को बंध कहते हैं। आगामी कर्म कब बंधते हैं ? जब जीव अज्ञान रूप परिणमता है। अतः अज्ञान रूप अशुद्धता कारण और नया बंध कार्य । इस प्रकार अशुद्धता कारण हुई। यह ध्यान रहे कि यहाँ आचार्य नवीन बंध का कारण केवल राग को नहीं कहना चाहते किन्तु ज्ञान की अज्ञान रूप अशुद्ध अवस्था को कहना चाहते हैं। ज्ञान और राग का भेद करके राग को बंध का कारण नहीं कहना चाहते किन्तु ज्ञान की राग मिश्रित अज्ञान रूप अशुद्ध अवस्था को बंध का कारण कहना चाहते हैं । अशुद्धत्व केवल राग का या केवल ज्ञान का नाम नहीं है किन्तु ज्ञान की अज्ञान रूप परिणत अवस्था का नाम है।
बद्धत्व और अशुधत्व का अन्तर समाप्त हुआ। पांचवां अवान्तर अधिकार
नौ पदार्थों की सिद्धि ९०१ से १५७ तक
प्रतिज्ञा
जीवः शुद्धनयादेशादस्ति शुद्धोऽपि तत्त्वतः । नासिद्धश्चाप्यशुद्धोऽपि बद्धाबद्धनयादिह ॥ १०१ ॥ *
शुद्ध-अशुद्ध शब्द जहाँ पर्याय के द्योतक होते हैं वहाँ रागी पर्याय को अशुद्ध कहते हैं और वीतरागी पर्याय को शुद्ध कहते हैं। वह अर्थ यहाँ नहीं है। शुद्ध-अशुद्ध का दूसरा अर्थ यह है कि विशेष को परिणमन को पर्याय मात्र को नी तत्त्वों को - अशुद्ध कहते हैं और उन नौ तत्त्वों में रहने वाले सामान्य को शुद्ध कहते हैं। यह अर्थ यहाँ इष्ट है। यह सामान्य (शुद्ध) निश्चय नय का विषय है। विशेष (अशुद्ध ) व्यवहार नय का विषय है।