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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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करने लगा यह उसकी अशुद्ध अवस्था है। अब नास्ति से समझाते हैं कि यदि ज्ञान की शुद्ध-अशुद्ध दोनों अवस्था न मानी जावे तो क्या-क्या आपत्तियाँ आती हैं। यदि ज्ञान की अशुद्ध अवस्था न मानी जावे तो अशुद्धता का अभाव हो जायेगा। अशुद्धता का अभाव होने से अशुद्धता के कारण जो बंध होता था उसका अभाव होगा और बंध का अभाव होने पर उसका फल जो संसारकार्य में विपरीतता उसका अभाव होगा। यह प्रत्यक्ष विरुद्ध है क्योंकि संसार कार्य में विपरीतता तो प्रत्यक्ष है (८९०)अब यदि इसके उत्तर में यह कहो कि हम तो बिना अशुद्धता रूप कारण के ही बंध मान लेंगे तो फिर बन्ध सदा बना रहेगा क्योंकि बिना कारण की वस्तु तो सदा रहती है और जो बंधा हुआ है वह सदा बंधा ही रहेगा क्योंकि वह बन्ध तो अकारण था। दूसरी बात यह है कि अशुद्ध ज्ञान मानते हो तो उस अशुद्धता के अभाव से शुद्ध ज्ञान भी बनता है। यदि ज्ञान के शुद्ध-अशुद्ध भेद नहीं मानते हो और एक ही प्रकार का मानते हो तो एक प्रकार का ज्ञान तो हम लोगों का प्रत्यक्ष है ही। बस यही रह जायेगा। शुद्ध ज्ञान जो केवलज्ञान है उसका अभाव हो जायेगा (८११) इसलिए तात्पर्य यही है कि ज्ञान का एक रूप मानना ठीक नहीं है। सर्वथा बंध रूप तो मानना इसलिये ठीक नहीं हैं क्योंकि भगवान का केवलज्ञान तो प्रसिद्ध वस्तु है और सर्वथा अबद्ध (केवल ) ज्ञान मानना भी ठीक नहीं हैं क्योंकि बद्ध ज्ञान तो हम लोगों का प्रत्यक्ष है ( ८९२) सोई समझाते हैं।
न स्याच्छुई तथाशुद्ध ज्ञानं चेदिति सर्वतः ।
न बन्धो न फलं बन्धहेतोरसंभवात् ॥ ८९० ॥ अर्थ-यदि ज्ञान सर्वथा शुद्ध तथा अशुद्ध न होवे तो बंध की कारण (अशुद्धता)को असम्भवता होने से न बंध रहेगा और न उस (बंध) का फल ( संसार कार्य में विपरीतता) रहेगी। भावार्थ ऊपर समझाकर आये हैं।
अथ चेदबन्धस्तदा बन्धो बन्धो नाबन्ध एव यः ।
न शेषश्चिद्विशेषाणां निर्विशेषादबन्धभाक ।। ८९१ ॥ अर्थ-यदि बिना अशुद्धता रूप कारण के ही बंध मानते हो तो बन्ध सदारहेगा।जो बंध है वह बंध ही रहेगा कभी अबंध नहीं होगा क्योंकि बिना कारण की वस्त मिटती नहीं। तथा ज्ञान की पर्यायों में सोपाधि निरूपधि रूप किसी प्रकार का अन्तर न मानने से अर्थात् एक ही प्रकार का ज्ञान मानने से हम लोगों का यह ज्ञान तो रहेगा क्यों कि यह तो प्रत्यक्ष है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। हाँ केवली का जो अबद्ध ज्ञान है वह न रहेगा क्योंकि ज्ञान का दूसरा भेद तुम मानते नहीं हो। तुम तो गुण की एक ही पर्याय मानते हो। सोपाधि निरुपाधि पर्याय का भेद तुम नहीं मानते हो। भावार्थ ऊपर समझा आये हैं । अब कहते हैं कि ऐसा मानना दोष युक्त है क्योंकि दोनों जान पाये जाते हैं:
माभूदा सर्वतो बन्धः स्यादबन्धप्रसिद्धितः ।
नाबन्धः सर्वत: श्रेयान बन्धकार्योपलब्धित: || ८९२॥ अर्थ-इसलिये सर्वथा बंध न होवे अर्थात् मात्र हम लोगों का बद्धज्ञान ही न माना जाय क्योंकि अबद्ध ज्ञान की प्रसिद्धि है अर्थात् केवलज्ञान प्रसिद्ध है। सर्वथा अबंध भी श्रेयस्कर नहीं है अर्थात् मात्र केवल ज्ञान भी मानना ठीक नहीं है क्योंकि बंध के कार्य की उपलब्धि है अर्थात् हम लोगों के बद्ध ज्ञान का विपरीत कार्य प्रत्यक्ष है। ज्ञान का काम एक समय में लोक-अलोक जानने का था। उसकी बजाय एक पदार्थ को जानकर उसके प्रति रागी, द्वेषी, मोही हो रहा है यह इसका विपरीत कार्य प्रत्यक्ष है। अत: भाई सोपाधि भी है, निरुपाधि भी है। शिष्य ने जो ८८२,८८३
पाधि-निरूपाधि दो प्रकार की पर्याय मानने से इन्कार किया था। उसका समाधान यहाँ तक किया और शदधअशुद्ध दोनों पर्यायें दिखलाईं और यह कहा कि परवस्तु रूप होने को ही सोपाधि नहीं कहते किन्तु निज के विभाव परिणमन को सोपाधि कहते हैं। अब विषय को संकोचते हैं और उपसंहार रूप में पहले निरुयाधि अर्थात् अबद्ध का स्वरूप कहते हैं फिर सोपाधि अर्थात् बद्ध का स्वरूप कहते हैं फिर यह कहते हैं कि बस निरुपाधि को ही शुद्ध कहते हैं और सोपाधि को ही अशुद्ध कहते हैं। इस प्रकार अपने अभीष्ट शुद्ध-अशुद्ध भेद की सिद्धिध करते हुये विषय को समाप्त करते हैं: