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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
नासिद्धोऽसौ दृष्टांतो ज्ञानस्याज्ञानतः सतः ।
अस्त्यनस्थान्तरं तस्य यथाजातप्रमात्वतः || ८८६॥ अर्थ-वह दृष्टांत असिद्ध नहीं है क्योंकि सत् रूप ज्ञान की अज्ञानपने से प्राप्ति है। उसकी स्वभाव से उत्पन्न प्रमिति से (एक समय लोक-अलोक को सम्पूर्णतया जानने रूप स्वभाव से दूसरे प्रकार की अवस्था( अज्ञान अवस्था-प्रत्यर्थ परिणमन अवस्था-रागी-द्वेषी अवस्था) देखी जाती है।
भावार्थ ८८५-८८६-शिष्य ज्ञान तो मानता था और उसकी पर्याय भी मानता था किन्तु सोपाधि पर्याय नहीं मानता था सो उसे कहते हैं कि भाई अज्ञान अवस्था में सोपाधिज्ञान तो प्रत्यक्ष है। ज्ञान का स्वभाव एक समय में लोक-अलोक के सब पदार्थों को जानने का है उस स्वभाव को छोड़कर जो ज्ञान एक समय में एक पदार्थ को जानता है और जानता ही नहीं है किन्तु उसमें इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करके उसके अनुसार राग या द्वेष रूप परिणमन करता है। बस यह जो ज्ञेय पदार्थ के अनुसार राग द्वेष मोह रूप ज्ञान का परिणमन है। अरे ! यही तो सोपाधि ज्ञान है। अरे ! कहीं ज्ञान के ज्ञेय रूप होने को सोपाधि नहीं कहते और यह सोपाधि ज्ञान प्रत्यक्ष है। इसलिये भाई ज्ञान सामान्य भी है। केवल ज्ञान रूप निरुपाधि ज्ञान विशेष भी है और अज्ञान अवस्था में सोपाधि ज्ञान विशेष भी है। वह जो सोपाधि ज्ञान है वही अशुद्धता है। ज्ञान में जो राग-द्वेष-मोह है उस राग-द्वेष-मोह का नाम बद्धत्व है। अत: सोपाधि ज्ञान बद्धत्व ही होता है और निरुपाधि अबद्धत्व ही होता है। ऐसा अविनाभाव है। अब दो में व्यतिरेक दृष्टांत कहते हैं:
व्यतिरेकोऽस्त्यात्मविज्ञान यथारत परहेतुतः ।
मिथ्यावस्थाविशिष्ट स्याद यन्लैवं शुद्धमेव तत् ॥८८७॥ अर्थ-व्यतिरेक (साधन ) यह है कि स्वाभाविक प्रमिति से उत्पत्र आत्मा का ज्ञान पर के निमित्त से मिथ्या अवस्था युक्त हो जाता है। जो ऐसा ( परहेतुक ) नहीं है वह ( अशुद्ध भी नहीं है अर्थात् ) शुद्ध ही है। (जो निमित्त में जुड़ता है वह ज्ञान अशुद्ध हो जाता है, जो नहीं जुड़ा वह अशुद्ध भी नहीं होता, शुद्ध ही रहता है। जैसे
तद्यथा क्षायिक ज्ञानं सार्थं सर्वार्थगोचरम् ।
शुद्धं रखजातिमात्रत्वादबद्धं निरुपाधितः ||८|| अर्थ-वह इस प्रकार कि क्षायिक ज्ञान युगपत सब पदार्थों को विषय करने वाला है। अपनी जाति मात्र होने से अर्थात् स्वभाव रूप होने से शुद्ध है और उपाधि रहित होने से अबद्ध है।
भावार्थ-क्षायिक (केवल) ज्ञान में दो बातें हैं । शुद्धता और अबद्धता। ज्ञान का स्वभाव एक समय में सबको जानना है। यही उसकी निज जाति है और वस्तु का निज जाति रूप होना ही शुद्धता है जैसे ठण्डा पानी। और ज्ञान में राग का न होना अबद्धता है। रागको उपाधि भी कहते हैं। अतः केवलज्ञान निरूपाधि होने से अबदध हैं। जैसे पानी में गर्मी न होने से अबद्ध है। अब इसकी फिर नास्ति कहते हैं कि सोपाधि ज्ञान अशुद्ध भी है और बद्ध भी है ताकि सोपाधि ज्ञान और निरुपाधि ज्ञान दोनों शिष्य को प्रत्यक्ष ख्याल आवे:
क्षायोयशमिकं ज्ञाजमक्षयात् कर्मणां सताम् ।
आत्मजातेश्च्युतेरेतवद्धं चाशुद्धमक्रात् ॥ ८८९।। अर्थ-क्षायोपशमिक ज्ञान सत्तात्मक कर्मों के नाश न होने से बद्ध है [ अर्थात मोह के उदय में जुड़कर विभाव परिणमन करने के कारण बद्ध है ] और अपनी जाति से च्युत होने के कारण उसी समय अशुद्ध भी है। अर्थात् ज्ञान की जाति एक समय में लोकालोक को जानने की थी। उस अपनी जाति से गिर गया और गिर कर एक समय में एक ही पदार्थ को जानता हुआ उसमें इष्टानिष्ट कल्पना करता हुआ,रागी-द्वेषी होता है। यह जो उसकी अवस्था हो गई है यह अशुद्धता है ] । इस प्रकार बद्धता और अशुद्धता का एक ही समय है। अविनाभाव है। अज्ञानी की अपेक्षा समझना ऐसा अध्यात्म का नियम है जैसे पहले (८३३ भावार्थ में बता आये हैं।)
भावार्थ-जैसे एक ब्राह्मण एक भंगण के घर में जाकर रहने लगा तो उस भंगण से जुड़कर जो उसमें विकार आया यह तो उसकी बद्धत्व अवस्था है और फिर बाह्मण का कार्य छोड़कर भंगी का कार्य करने लगा यह उसकी अशुद्धत्व अवस्था है। इसी प्रकार ज्ञान मोह के उदय में जुड़कर रागी हुआ यह उसकी बद्ध अवस्था है और अज्ञान रूप कार्य