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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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भावार्थ-शिष्य गुण मानता है। उसकी पर्याय मानता है। उस पर्याय में जो स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय का भेद है वह वह नहीं मानता है। जैसे ज्ञान गुण मानता है। जानना उसका कार्य मानता है पर ज्ञान की अज्ञान अवस्था और केवल अवस्था यह वह नहीं मानता । अब अपनी बात को दृष्टांत द्वारा पुष्ट करता है:
अपि चाभिज्ञालमत्रारित ज्ञानं यद्रसरूपयोः।
न रूपं न रसो ज्ञानं ज्ञानमात्रमथार्थतः ॥८८३|| शंका चालू-इस विषय में दृष्टांत भी है जो रस और रूप का ज्ञान है वह रूपमय या रसमय नहीं है। पदार्थ रूप से जान तो ज्ञान मात्र ही है। अतः ज्ञान सोपाधि नहीं है केवल निरुपाधि है। यदि ज्ञान रस रूपमय हो जाता तो सोपाधि हो जाता सो होता नहीं। अतः ज्ञान सामान्य है और ज्ञान विशेष भी है पर सोपाधि विशेष और निरुपाधि विशेष यह भेद ज्ञान में नहीं है।
भावार्थ ८८२-८३-शंकाकार गुण मानता है। उसका परिणमन ( पर्याय) भी मानता है। फिर उस पर्याय में जो सोपाधि पर्याय और निरुपाधि पर्याय का भेद है उसे वह नही मानता है। वह दृष्टांत भी देता है कि ज्ञान एक गुण है यह सामान्य है। रूप रस आदि को जानना यह उसकी पर्याय है-विशेष है। इसके अतिरिक्त सोपाधि निरुपाधि ज्ञान और क्या है? यह मेरी समझ में नहीं आता है। साथ ही कहता है कि यदि ज्ञान रस को जानते समय स्वयं रस रूप ही हो जाया करता तो सोपाधि बन जाता किन्तु ऐसा तो होता नहीं। अत: ज्ञान में सोपाधि निरुपाधि भेद नहीं है बस ज्ञान है और उसकी पर्याय है ऐसा उसका आशय है अर्थात् उसने उपाधि रूप जो अशुद्धता है उसको ही खत्म कर दिया है।वह ज्ञान के ज्ञेय रूप होने को सोपाधि ज्ञान समझता है किन्त ज्ञान के विकारी होने को सोपाधि नहीं समझता। अब जब ज्ञान ज्ञेय रूप नहीं होता तो उसका कहना है कि बस ज्ञान केवल निरुपाधि ही है। सोपाधि शब्द का अर्थ वह इस प्रकार समझ गया है। उपाधि अर्थात् परवस्तु सह अर्थात् उस समय होना और निरुपाधि का अर्थ वह समझा है परवस्तु रूप नहीं होना। यही भूल उसकी शंका का आधार है। परवस्तु को भी उपाधि कहते हैं और राग को या विभाव को । भी उपाधि कहते हैं। यहाँ राग या विभाव का नाम उपाधि था वह परवस्तु अर्थ समझ गया।
समाधान ८८४ से ८९२ तक नैवं यतो विशेषोऽरित सद्विशेषेऽपि वस्तुतः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां द्वाभ्यां वै सिद्धसाधनात् || ८८५॥ अर्थ- सोपाधि निरुपाधि विशेष नहीं है ऐसा नहीं है क्योंकि सत् विशेष में भी वस्तुपने से विशेषता है। वह विशेषता अन्वय व्यतिरेक दोनों साधनों से वास्तव में सिद्ध है।
भावार्थ-सत् विशेष पर्याय को कहते हैं। सो आचार्य समझाते हैं कि भाई पर्याय तो है ही किन्तु पर्याय में भी अन्तर है और वह अन्तर वास्तविक है अर्थात वस्त ही वास्तव में स्वाभाविक और वैभाविक पर्याय रूप है। स्वाभाविक पर्याय को निरुपाधि पर्याय कहते हैं और वैभाविक पर्याय को सोपाधि पर्याय कहते हैं। सोपाधि पर्याय भी जगत में प्रत्यक्ष है वह अचय रूप कही जाती है क्योंकि जिसके होने पर जो हो उसको अन्वय कहते हैं। विभाव के होने पर अशुद्धता होना यह अन्वय है और जिसके न होने पर जो न हो उसे व्यतिरेक कहते हैं। विभाव के न होने पर अशद्धता का न होना (केवल शुद्धता का होना) यह व्यतिरेक है। सो अन्वय और व्यतिरेक दानों पर्यायें प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। जैसे
ज्ञान की अज्ञान अवस्था विभाव अवस्था है उसको यहाँ अन्वय शब्द से कहा है। ज्ञान की केवल ज्ञान अवस्था स्वभाव अवस्था है। उसको यहाँ व्यतिरेक कहा है दोनों प्रत्यक्ष सिद्ध है इसलिये भाई सोपाधि विशेष भी है और निरुपाधि विशेष भी है। अब दोनों का स्वरूप क्रमश: कहते हैं। पहले दो में अन्वय दृष्टांत कहते हैं:
तत्रान्तयो यथा ज्ञानमज्ञान परहेतुतः ।
अर्थाच्छीतमशीलं स्याद्वन्हियोगाद्धि वारिवत् ॥ ८८५ ।। अर्थ-उनमें अन्बय (साधन) इस प्रकार है कि ज्ञान पर निमित्त से अज्ञान रूप हो जाता है जैसे ठण्डा पदार्थ आग के निमित्त से गरम हो जाता है जैसे पानी। अर्थात ज्ञान की अज्ञान अवस्था सोपाधि विशेष है। जैसे गरम जल सोपाधि जल है।