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________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी जीवकृत परिणामं निमित्तमात्र प्रपा पुनरल्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुदगलाः कर्मभावेन ॥ १२॥ अर्थ-जी के कोपरिएलाम का सिमित मात्र पाकर फिर गल(कार्मण वर्गणायें) स्वयं ही कर्म भाव से परिणमती हैं। इसे भी विद्वान विचारें। बद्धत्व निरूपण समाप्त अशुद्धता का निरूपण ८८० से ८९५ तक भूमिका-अशुद्धता क्या है यह आपको दृष्टांत से भली-भांति समझ में आ जायेगा। आत्मा का एक ज्ञान गुण है। उसका स्वभाव है जानना और एक समय में लोकालोक का जानना। इस स्वभाव से च्युत होकर उस ज्ञान की अज्ञान अवस्था का होना अशद्धता है। अशुद्ध अवस्था में ज्ञान अपने स्वाभाविक कार्य को छोड़ देता है और एक समय में एक पदार्थ को ही जानता हुआ उसी को इष्ट-अनिष्ट कल्पना करके उसके अनुसार राग-द्वेष रूप परिणमन करने लगता है। ज्ञान की इस अवस्था को अशुद्धता कहते हैं। इस अशुद्धता का कारण 'बंध' है अर्थात् ज्ञान में राग का आना है या यों कहिये कि ज्ञान का मोह के उदय में जुड़कर उसके आकार रूप विभाव परिणमन करना है। बद्धत्व कारण है। अशुद्धता कार्य है। समय दोनों का एक है। अशुद्धता का स्वरूप ८८०-८८१ तबद्धत्वाविनाभूतं स्यादशुद्धत्वमक्रमात् । तल्लक्षणं यथा द्वैतं स्यादद्वै तात स्ततोऽन्यतः ॥ ८८011 अर्थ-उस बद्धत्व से अविनाभावी अशुद्धता उसी समय होती है। उसका लक्षण इस प्रकार है कि स्वत: अद्वैत से अन्य ( विभाव) है निमित्त जिसमें ऐसा द्वैतपना अशुद्धता है जैसे ज्ञान में राग आ जाने से ज्ञान अशुद्ध है। ज्ञान की अशुद्ध अवस्था अर्थात् अज्ञान अवस्था ही अशद्धता है। भावार्थ-जिस समय ज्ञान निमित्त में जुड़कर विभाव उत्पन्न करता है, उसी समय स्वाभाविक अवस्था से च्युत होकर अशुद्ध अवस्था में आ जाता है। ज्ञान एक वस्तु है उसमें राग रूप दुसरी वस्तु आने से अद्वैत से द्वैत हो गया। शद्ध से अशुद्ध हो गया। यह अशुद्धता है। इस अशुद्धता के कारण अपना एक समय में लोक-अलोक को जानने का कार्य छोड़ प्रत्यर्थ परिणमन क्रिया करने लगा। यह अशुद्धता का फल हुआ। तत्राद्वैतेऽपि यद्वैतं तद् द्विधाप्यौपचारिकम् । तत्राद्यं स्वांशसंकल्पश्चेत सोपाधि द्वितीयकम् ॥८८१॥ अर्थ-उस अशुद्धता में अद्वैत होने पर भी जो द्वैत है वह दोपना भी औपचारिक है। उनमें पहला स्व अंश का संकल्प है और दूसरा सोपाधि संकल्प है जैसे विकारी ज्ञान में ज्ञान अंश स्व अंश कल्पना है और राग पर अंश कल्पना है। भावार्थ-वास्तव में तो ज्ञान की अज्ञान रूप एक अखण्ड अवस्था है। वह वस्तही वास्तव में अखण्ड है। पर बिना भेद के समझ नहीं आती। सो अशद्धता को समझाने के लिये आचार्य कहते हैं कि कल्पना करो एक ज्ञान अंश है, एक राग अंश है। ज्ञान अंशको निरुपाधि अंश कहते हैं औररागको उपाधि अंश कहते हैं ।सो किसी वस्तु की निरुपाधि अवस्था से सोपाधि अवस्था का हो जाना ही अशुद्धता है। इस अशुद्धता को समझाने के लिये दो अंश कल्पना करनी पड़े। इससे अशुद्धता ठीक पकड़ में आ जाती है। . ____ नोट-अशुद्धता का निरूपण समाप्त हुआ। अब शंका समाधान द्वारा इसी को विशेष स्पष्ट करने के लिये शिष्य से यह शंका करवाते हैं कि अशुद्धता कोई वस्तु ही नहीं। शंका ८८२-८३ ननु चैकं सत्सामान्यात द्वैतं स्यात्सद्विशेषतः । तद्विशेषेऽपि सोपाधि निरुपाधि कुतोऽर्थतः ॥ ८८२ ।। शंका-एक सत् सामान्यपने से है अर्थात् गुण रूप से है और एक सत् विशेषपने से है। अर्थात पर्याय रूप से है। उस विशेष में भी 'सोपाधिविशेष' और 'निरूपाधि विशेष' पदार्थ में यह भेद कहाँ है? नहीं है। अर्थात् शिष्य सोपाधि निरुपाधिरूप दो प्रकार की पर्याय नहीं मानता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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