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________________ २४६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी हो सकती है कि एक ही कर्म वैभाविक भाव का कार्य भी है और उसी वैभाविक भाव का कारण भी है वही कार्य वही कारण यह बात एक अनबन-सी प्रतीत होती है सो उत्तर में कहते हैं कि वह कर्म पहले वैभाविक भाव का कार्य है और वही कर्म उसी जाति के अगले वैभाविक भाव की उत्पत्ति में कारण है इसप्रकार वह कर्म एक ही है वही कार्य। भी है और कारण भी है। अब यहाँ कोई शंका उठावे कि एक ही कर्म स्वयं कार्य और वही कर्म स्वयं कारण-एक । ही वस्तु में कार्य कारण दोनों भाव कैसे हो सकते हैं सो इस शंका का उत्तर भी एक ही पदार्थ में कार्य कारण भाव दिखलाने वाले दृष्टांत द्वारा स्फुट करते हैं: तमों यथा नः सा संद-गुजः । स्वाकाराकारसंक्रान्त कार्य हेतः स्वयं च तत ॥ ८७५ir अर्थ-जिस प्रकार दर्पण में चक्षु का प्रतिबिम्ब पड़ता है। सो चक्षु के आकार रूप में संक्रांत हुआ वह प्रतिबिम्ब कार्य भी है और स्वयं कारण भी है। उसी प्रकार आत्मा के वैभाविक भाव से बंधने वाला द्रव्य कर्म कार्य भी है और फिर उसी जाति के भाव के उत्पन्न होने में कारण पड़ता है। इसलिये स्वयं कारण भी है। भावार्थ-चक्षु का आकार दर्पण में पड़ता है इसलिये तो वह आकार 'कार्य' हुआ क्योंकि चक्षु से उत्पन्न हुआ है। परन्तु उसी आकार को जब देखते हैं तब अपने दिखाने में वह आकार कारण भी होता है। इसलिये एक ही पदार्थ में कार्य कारण भाव भी उपर्युक्त दृष्टांत द्वारा सुघटित हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा के वैभाविक भाव से कर्म बंधता है इसलिये तो वह कार्य हुआ और जब पुनः आत्मा विभाव करता है तब वही उसमें निमित्त कारण बनता है। इसलिये वही स्वयं कारण भी हुआ। इस प्रकार एक ही कर्म कार्य भी हुआ और कारण भी हुआ। जीवभावविकारस्य हेतुः स्याद् दव्यकर्म तत् । । तद्धेतुस्तद्विकारश्च यथा प्रत्युपकारकः ॥ ८७७ ॥ अर्थ--जीव के विकारी भावका कारण वह द्रव्य कर्म है और द्रव्य कर्म का कारण जीव का विकार है जिस प्रकार दो आदमी एक-दूसरे का उपकार करते हैं। भावार्थ-मेरी लड़की की शादी हुई आपने मेरी मदद कर दी फिर आपकी लड़की की शादी हुई मैंने आपकी मदद कर दी इस प्रकार आप मेरे कार्य में कारण हुए और मैं आपके कार्य में कारण हुआ इसको परस्पर उपकार कहते हैं। जीव के विकार के लिये द्रव्य कर्म ने कारणपने का काम किया तो जीव ने द्रव्य कर्म बनने के लिये राग करके कारण का काम किया। इस प्रकार उसने भी कारण का उपकार किया और उसने भी कारण का उपकार किया। इस प्रकार उभय बंध रूप में दोनों एक-दूसरे का कारण रूप से उपकार करते रहते हैं। अब उस शिष्य को आचार्य महाराज कहते हैं कि भाई इस प्रकार अत्यन्त भिन्न भी वह द्रव्यकर्म का उदय ही जीव के विकार का कारण बनता है। अन्य पदार्थ नहीं। उपसंहार ८७८,८७९ खास चिद्विकाराकृतिस्तस्य भावो वैभाविकः रगृतः । तन्निमित्तात्पृथग्भूतोऽप्यर्थ: स्यात्तन्निमिसकः ।। ८७८।। अर्थ--(इस प्रकार) चेतना की विकार रूप आकृति उसका वैभाविक भाव माना गया है। उस वैभाविक भाव के कारण से पृथक् पड़ा हुआ भी पदार्थ (द्रव्य कर्म का उदय) उस विकारी भाव का निमित्तक (निमित्त कारण ) होता है। श्लोक नं.८७६ की ऊपर की एक पंक्ति पं. श्री मक्खनलालजी की टीका में है जो इस प्रकार है:अपि चाचेतलं मूर्त पौगलं कर्म तराया । ............ ||८७६/१०८।। अर्थ : अचेतन, पौद्गलिक, मूर्त द्रव्य कर्म कारण वह वैभाविक भाव है। तथा यही श्लोक नं. ८७६/१०८ पं. श्री देवकीनन्दनजी की टीका में इसप्रकार है अपि चाचेतनं भूर्त पौद्गले कर्म तटाया । भात्मना बध्यते नित्य भित्तो क्षिप्त कनक गर्दवतं 11 ८७६/१०८ ॥ अर्थ : इनमें से कर्म यह अचेतन, मूर्त और पौगलिक होता है जो भिति पर फेंके गये रज कण के समान आत्मा से बंध जाता
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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