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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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जीवकर्मो भयोर्बन्ध: स्यान्मिथः साभिलाषुकः ।
जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ॥ ८७२ ॥ अर्थ-जीव और कर्म दोनों का बन्ध परस्पर सापेक्ष होता है। जीव कर्म से बद्ध होता है और वह कर्म जीव से बद्ध होता है।
भावार्थ-कोई मात्र इतना कहे कि जीव कर्म से बंधता है तो ठीक नहीं है। कोई मात्र इतना कहे कि कर्म जीव से बंधता है तो ठीक नहीं है। फिर क्या ठीक है? ठीक यह है कि जीव कर्म से बंधता है और कर्म जीव से बंधता है क्योंकि कार्य कारण केवल एक का नहीं किन्तु दोनों का परस्पर में है।
सद्गुणाकारसंक्रान्तिर्भावो वैभाविकश्चितः ।
तन्निमितं च तत्कर्म तथासामर्थ्यकारणम् ॥ ८७३ ।। अर्थ-(चेतनाका) उस निमित्त के गुणाकार रूप परिणमन करनाचेतना का वैभाविक भाव है। वह भाव है निमित्त जिसमें ऐसा वह द्रव्य कर्म उसी भाव के उत्पन्न होने में निमित्त कारण की सामर्थ्य रखता है। __भावार्थ-आत्मा स्वतन्त्र विभाव भाव करता है। वह विभाव भाव क्या वस्तु है तो कहते हैं कि आत्मा दो प्रकार से परिणमन किया करता है। एक तो अपने गुण के आकार रूप उसे तो स्वाभाविक भाव कहते हैं वह तो बंध का कारण नहीं है किन्तु एक निमित्त के आकार ( स्वरूप)कारणपन करता है वह भाविक भान है जो लम्यक्च आत्मा का गुण है तो सम्यग्दर्शन रूप परिणमन करना तो उसका स्वाभाविक परिणमन है और दर्शन मोह के उदय में जुड़कर उसका आकार जो मिथ्यात्व उस रूप परिणमन करना वह आत्मा का वैभाविक भाव है। वह स्वाभाविक भाव तो बंध में निमित्त नहीं पड़ता किन्तु वैभाविक भाव बंध में निमित्न पड़ता है यह प्रथम पंक्ति का अर्थ है। अब नीचे की पंक्ति का अर्थ यह है कि वैभाविक भावका निमित्त पाकर कामण वर्गणायें कर्म रूप में परिणमन हैं और वह कर्म अपनी पाक अवस्था में पुनः आत्मा के लिये उसी वैभाविक भाव की उत्पत्ति के लिये निमित्त कारण बनता है। जैसे आत्मा के मिथ्यात्व रूप वैभाविक भाव से मिथ्यात्व कर्म बंधा और फिर वही मिथ्यात्व कर्म मिथ्यादृष्टि आत्मा के आगामी मिथ्यात्व भाव का निमित्त मात्र कारण बन जाता है। विषय क्या चल रहा है यह आपके ध्यान में होगा। शिष्य ने यह प्रश्न किया था कि आत्मा के विभाव परिणमन में अत्यन्ताभाव का द्रव्य कर्म का उदय कैसे कारण हो जाता है सो उसके उत्तर में उसे समझाते चले आ रहे हैं कि आत्मा विभाव भाव करता है। उससे उसी जाति का कर्म बंधता है फिर वह कर्म आगामी उसी भाव की पुन: उत्पत्ति करे तो निमित्त कारण बनता है। इस प्रकार अत्यन्त भिन्न भी वह कर्म कारण बन जाता है तथा वही कारण बनता है अन्य कोई द्रव्य नहीं क्योंकि आत्मा की उसी के साथ बद्ध संज्ञा है। दूसरे से नहीं और उन्हीं को उभय बंध कहते हैं दूसरों को नहीं।
अर्थोऽयं यस्य कार्य तत कर्मणस्तस्य कारणम् ।
एको भावश्च कमैकं बन्धोऽयं द्वन्द्वजः स्मृतः ॥ ८७४|| शब्दार्थ-१ तत्-नपुन्सक लिंगद्रव्य कर्म का द्योतक है। यह कर्ता है। इसका अर्थ वैभाविक भाव नहीं है। २-कर्मणः शब्द का अर्थ यहाँ भाव कर्म अर्थात् वैभाविक भाव है। द्रव्य कर्म नहीं है।
अर्थ-भाव यह है कि वह द्रव्य कर्म जिस वैभाविक भाव का कार्य है। उसी वैभाविक भाव का कारण भी है। एक भाव और एक कर्म यही दोनों से होने वाला ( उभय बंध) माना गया है।
भावार्थ-आत्मा ने विभाव भाव किया वह कारण हुआ। उससे कर्म बना वह कार्य हुआ और पुनः जब आत्मा ने विभाव किया उसके लिये वही कर्म कारण बना। इस प्रकार एक ही कर्म पहले वैभाविक भाव का कार्य हुआ और दूसरे वैभाविक भाव में कारण हुआ अर्थात् एक ही कर्म कार्य भी हुआ और कारण भी हुआ। तो कहते हैं कि बस यह जो आत्मा का विभाव और कर्म का कार्य कारण भाव है। यही उभय बंध है। इसको निमित्त-नैमित्तिक भी कहते हैं। इस प्रकार शिष्य ने जो यह प्रश्न किया था कि आत्मा के विभाव का पथक पड़ा हुआ द्रव्य कर्म कैसे कारण हो जाता है अन्य पदार्थ क्यों नहीं तो उसे समझाया कि आत्मा ने अपने विभाव भाव से जिस कर्म को बांधा था उसकी उसके साथ बद्ध संज्ञा है और वही उसके विभाव का इस प्रकार कारण बनता है। अब यहाँ पर यह शंका उपस्थित