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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
नैकशक्तेर्द्विधाभावो यौगपद्यानुषङ्गतः ।
सति तत्र विभावस्य नित्यत्वं स्यादबाधितम् ॥ ८६१॥ अर्थ-तथा एक शक्ति के युगपत् दो प्रकार के परिणमन भी नहीं हो सकते क्योंकि एक शक्ति के युगपत दो पणिमन मानने सपना दोदोंगकारले परिणाम के सद्भाव का प्रसंग आता है तथा ऐसा होने पर विभाव परिणमन में भी नित्यपना अबाधित ठहरता है (जो प्रत्यक्ष बाधित है तथा फिर बंध मोक्ष आदि की कुछ भी व्यवस्था नहीं रहती है)।
भावार्थ-यद्यपि एक शक्ति ( वैभाविकी) के ही दो भेद होते हैं अर्थात् एक ही शक्ति दो रूप धारण करती है परन्तु एक साथ ही एक शक्ति के दो भेद नहीं हो सकते। यदि दोनों भेद बराबर एक साथ ही होने लगे तो वैभाविक अवस्था भी नियम से सदा बनी रहेगी और वैभाविक अवस्था की नित्यता में आत्मा का मोक्ष प्रयास व्यर्थ हो जायगा। इसलिये एक गुण की वैभाविक और स्वाभाविक अवस्थायें क्रम से ही होती हैं। एक काल में नहीं होती।
सार ८५१ से ८६१ तक का- जिस प्रकार आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अनन्त शक्तियाँ हैं उसी प्रकार एक वैभाविक शक्ति भी हैं। वैभाविकी अर्थात् विशेष भाव वाली शक्ति। इसका नाम वैभाविकी है किन्तु है यह शुद्ध । शक्ति ( ८४८) त्रिकाल स्थायी। जिस प्रकार उपर्युक्त शक्तियों का क्रमशः विभाव-स्वभाव दोनों प्रकार का परिणमन होता है उसी प्रकार इस शक्ति का भी विभाव-स्वभाव दोनों प्रकार का परिणमन क्रमश: होता है [आत्मा में अन्य जितने गुण विभावरूप परिणमन करते हैं वे करते तो अपनी अपनी योग्यता से हैं पर यह वैभाविकी शक्ति सबके लिये निमित्त । है] यदि यह शक्ति न होती तो धर्म द्रव्यवत् जीव पुद्गल विभाव रूप न परिणमते और संसार मोक्ष की व्यवस्था न बनती। फिर तो जीव धर्म द्रव्यवत् सदा शुद्ध ही रहता। अतः जीव में एक वैभाविकी नामा त्रिकाली शुद्ध शक्ति है। संसार दशा में उसका विभाव परिणमन है और सिद्ध दशा में उसका स्वभाव परिणमन है तथा उसका विभाव परिणमन बंध का कारण है और स्वभाव परिणमन मोक्ष का कारण है तथा जब विभाव परिणमन करती है तो पुद्गल द्रव्य (द्रव्य कर्म का उदय)निमित्त पड़ता है अन्यथा नहीं। इस पर अब शिष्य पूछता है कि जब दो द्रव्यों में अत्यन्ताभाव है तथा जीव पुद्गल में कर्ता-कर्म संबंध भी नहीं है फिर यह अत्यन्त भिन्न पड़ा हुआ पुद्गल मेटर जीव के विभाव में कारण कैसे बन जाता है तथा वही क्यों कारण बनता है और कोई क्यों नहीं:
शंका ८६२ से ८६७ तक ननु चानादितः सिद्धं वस्तुजातमहेतुकम् ।
तथा जातं परं नाम स्वत: सिद्धमहेतुकम ।। ८६२ ॥ शंका-वस्तु समूह ( छ:द्रव्य ) अहेतुक ( बिना किसी कारण के) अनादि से सिद्ध है और उसका परिणमन भी अहेतुक स्वतः सिद्ध है। अर्थात् जैसे द्रव्य अनादि अनन्त स्वभाव से स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वभाव से अनादि अनन्त स्वतः परिणमनशील भी है।
तदतश्यमवश्यं स्यादन्यथा सर्वसट्ररः ।
सर्वशून्यादिदोषश्च दुर्वारो निग्रहास्पदम् ॥ ८६३ ।। शंका चाल-स्वतः सिद्ध वस्तु और उसका स्वतः सिद्ध परिणमन अवश्य है अवश्य है अन्यथा सर्वसंकर और सर्वशून्यादि दोष आते हैं तथा निग्रहास्पद निवारण करना कठिन है। अर्थात् अन्यथा द्रव्यों का स्वतन्त्र अस्तित्व ही न रहेगा।
ततः सिद्धं यथा वस्तु यत् किंचिच्चिज्जडात्मकम् ।
तत्सर्व स्वस्वरूपाद्दौः स्यादनन्यतातिः स्वतः ॥८६४ ॥ शंका चालू-इसलिये यह सिद्ध हो गया कि जो कोई भी चेतन अथवा जड़ स्वरूप वस्तु है, वह सब अपने स्वरूपादिक से स्वतः अनन्यगति है अर्थात् प्रत्येक वस्तु त्रिकाल अपने प्रदेशों में ही अपना कार्य करती है। दूसरे द्रव्य में हस्ताक्षेप नहीं करती।
अयमर्थः कोऽपि कस्यापि देशमात्रं हि नाश्नुते । द्रव्यतः क्षेत्रातः कालाद्धावात सीम्नोऽनतिकमात् ॥ ८६५ ॥