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द्वितीय खण्ड /चौथी पुस्तक
भावार्थ- जब उपर्युक्त कथनानुसार सभी शक्तियों का परिणमन होता है तब वैभाविकी शक्ति का भी प्रतिक्षण परिणमन सिद्ध हो चुका। इसलिये फलितार्थं यह हुआ कि वैभाविकी शक्ति ही अवस्था भेद से स्वभाव विभाव में आया करती है। जब तक कर्मों का सम्बन्ध रहता है तब तक तो उस वैभाविकी शक्ति का विभाव रूप परिणमन होता हैं और जब सम्पूर्ण कर्मों का अभाव हो जाता है उस समय उस वैभाविकी शक्ति का परिणमन स्वभाव रूप होता है। इस प्रकार केवल एक वैभाविकी शक्ति के ही स्वाभाविक और वैभाविक ऐसे दो अवस्था भेद हैं।
सिद्धं सोऽवयं न्यायात् शक्तिद्वयं यतः । सदवस्थाभेदतो द्वैतं न द्वैतं युगपत्तयोः ॥ ८५९ ॥
अर्थ - इसलिये उपर्युक्त न्याय से यह सिद्ध हुआ कि सत् की स्वाभाविकी और वैभाविकी दो शक्तियाँ तो जरूर हैं किन्तु वह अवस्था के भेद से हैं (परियामन की दृष्टि से हैं- पर्याय दृष्टि से हैं) किन्तु ऐसा नहीं है कि मूल में वे दो शक्तियाँ इकट्ठी हैं और उनके स्वभाव विभाव दोनों प्रकार के परिणमन भी साथ-साथ चलते हैं।
भावार्थ- वस्तु में एक समय में एक ही पर्याय होती है इस नियम से वैभाविकी शक्ति की क्रम से होने वाली दोनों अवस्थायें वस्तु में रहती हैं परन्तु कोई कहे कि स्वाभाविक और वैभाविक दोनों एक साथ रह जायें यह कभी नहीं हो सकता। क्योंकि यदि एक साथ एक काल में दोनों रह जाएँ तो वे दो गुण कहे जायेंगे, पर्याय नहीं कही जायेंगी। पर्याय तो एक समय में एक ही होती है। इसलिये अवस्था भेद से क्रम से ही वैभाविक और स्वाभाविक दोनों अवस्थायें पाई जाती हैं एक काल में नहीं।
यौगपद्ये महान् दोषस्तद्द्द्वयस्य नयादपि ।
कार्यकारणयोर्नाशो नाशः स्याद्वन्धमोक्षयोः || ८६० ॥
अर्थ - उन दोनों स्वाभाविकी और वैभाविकी शक्ति के युगपत रहने में न्याय से भी महान दोष आता है क्योंकि कार्यकारण का नाश होता है और बंध मोक्ष का नाश होता है।
भावार्थ - यद्यपि वैभाविकी शक्ति एक ही है और उसकी दो अवस्थायें कम से होती हैं यह सिद्धान्त है तथापि अवस्था भेद से जो द्वैत है अर्थात् पर्याय की अपेक्षा से जो स्वाभाविक और वैभाविक दो भेद हैं; उन भेदों को एक साथ ही कोई स्वीकार करे तो भी ठीक नहीं है। ऐसा मानने से अनेक दोष आते हैं। एक तो कारण कार्य भाव इनमें नहीं रहेगा क्योंकि वैभाविक अवस्था पूर्वक ही स्वाभाविक अवस्था होती है। जिस प्रकार संसार पूर्वक ही मोक्ष होती है। इसलिये संसार मोक्ष प्राप्ति में कारण है। इसी प्रकार वैभाविक अवस्था के बिना स्वाभाविक अवस्था भी नहीं हो सकती है। एक साथ मानने में यह कारण कार्य भाव नहीं बनेगा। दूसरे बंध और मोक्ष की भी व्यवस्था नहीं बनेगी क्योंकि वैभाविक अवस्था को पहले मानने से तो बंध पूर्वक मोक्ष का होना सिद्ध होता है परन्तु एक साथ दोनों अवस्थाओं की सत्ता स्वीकार करने से बन्ध और मोक्ष एक साथ ही प्राप्त होंगे अथवा बन्ध की सत्ता होते हुये मोक्ष कभी हो नहीं सकती, इसलिये इस आत्मा की कभी भी मोक्ष नहीं होगी।
सार यदि एक ही शक्ति मानकर उसी का विभाव और स्वभाव परिणमन क्रम से माना जाय तब तो ठीक बैठता है क्योंकि विभाव पनि का नाम बंध है और स्वभाव परिणमन का नाम मोक्ष है। बंध के समय मोक्ष नहीं है। मोक्ष के समय बन्ध नहीं है | यदि दोनों शक्तियों और उनका स्वभाव-विभाव दोनों प्रकार का परिणमन एक साथ मान लिया जाये तो बंध मोक्ष सदा इकट्ठे रहेंगे यह विरुद्ध है। कार्य कारण इस प्रकार नहीं बनता है कि पहले किसी में अशुद्धता हो तो उसके नाश से शुद्धता प्रगट करे । इस प्रकार अशुद्धता कारण और शुद्धता कार्य बैठता है। जब शुद्धता पहले से ही है तो अशुद्धता को नाश करके शुद्धता प्रगट करने का प्रश्न ही न रहा और जब वैभाविक शक्ति का विभाव परिणमन नित्य रहेगा तो अशुद्धता के नाश का प्रश्न ही नहीं होता। भाव यही है कि दोनों शक्तियाँ और उनका दोनों प्रकार का परिणामन एक साथ मानकर तो बंध मोक्ष और कार्य कारण आदि की सब व्यवस्था बिगड़ जाती है और एक के क्रमशः विभाव-स्वभाव परिणमन मानने से ही सब व्यवस्था बनती है। कारण कार्य का अर्थ केवल इतना ही है कि अशुद्धता मिटकर शुद्धता होती है और कुछ नहीं। इस पर शिष्य कहता है कि अच्छा शक्ति तो एक ही मानलो पर उसका परिणमन दोनों प्रकार का एक साथ मान लो फिर तो ठीक रहेगा उत्तर देते हैं:
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