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________________ २४० ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी वैभाविकी शक्ति का परिणमन होता रहेगा। जब कर्मों का उदय न रहेगा, उस समय उस वैभाविकी शक्ति का परिणमन भी न होगा। कूटस्थ बनकर द्रव्य में पड़ी रहेगी। दण्डयोगाद्यथा चक्रं बम्श्चमत्यात्मनात्मनि । दण्डयोगाद्विजा चर्क चित्रं वा व्यवतिष्ठते ॥ ८५५॥ शंका चालू-अब शंकाकार अपनी बात को दृष्टांत द्वारा पुष्ट करता है कि जैसे चाक दण्ड के योग से अपने द्वारा अपने में घूमता है और दण्ड के योग के बिना वही चित्रवत् ठहर जाता है उसी प्रकार जब तक निमित्त की उपस्थिति रहे तब तक तो वैभाविकी शक्ति अपने द्वारा अपने में परिणमन करती रहे और निमित्त हटने पर चाक की तरह होकर द्रव्य में पड़ी रहे क्योंकि यह तो आप ऊपर कह ही चुके हैं कि निमित्त के हटने पर शक्ति का नाश तो होता ही नहीं। फिर उसका कूटस्थ हो जाना ही ठीक है क्योंकि फिर उसके परिणमन की तो कुछ आवश्यकता रही नहीं। शंकाकार का आशय-गुरु महाराज ने यह सिद्धांत समझाया था कि वैभाविकी शक्ति है। निमिस की उपस्थिति में यह विभाव परिणमन करती है और निमित्त की अनुपस्थिति में स्वभाव परिणमन करती है अर्थात् एक शक्ति है और उसके दो प्रकार के परिणमन हैं। इस पर शिष्य कहता है कि महाराज ऐसा न मानकर आत्मा में एक स्वाभाविकी और एक वैभाविकी दो स्वतन्त्र शक्तियाँ मानें। ये दोनों शक्तियाँ नित्य रहें। स्वाभाविक शक्ति का परिणमन तो सदा होता ही रहे और वैभाविकी शक्ति का परिणमन कर्मों की उपस्थिति में होता रहे परन्तु कर्मों के नाश होने पर या अनुदय होने पर वैभाविकी शक्ति का परिणमन नहीं होवे। इस प्रकार शिष्य दो शक्तियाँ मानकर उन्हें नित्य मानता है तथापि उनमें परिणमन वह सदा नहीं मानता। उसके सिद्धान्तानुसार अब दो शंकायें हो गईं। एक तो एक शक्ति के स्थान में दो शक्तियें स्वीकार करना,दसरे शक्तियों को नित्य मानते हये भी उनमें सदा परिणमन नहीं मानना। इन्हीं दोनों शंकाओं का परिहार नीचे किया जाता है। समाधान ८५६ से ८६१ तक लैवं यतोऽस्ति परिणामि शक्तिजातं सतोरिवलम् । कथं वैभाविकी शक्तिन याद्वै पारिणामिकी ।। ८५६॥ अर्थ-ऐसा नहीं है अर्थात् निमित्त के हटने पर वैभाविकी शक्ति कूटस्थ नहीं होती है क्योंकि सत् का सम्पूर्ण शक्ति समूह (गुण समुदाय) परिणमनशील है। फिर बैंभाविकी शक्ति परिणामी क्यों नहीं रहेगी। उसे यह उत्तर दिया गया है कि सम्पूर्ण, द्रव्यों के सम्पूर्ण गुण स्वतः सिद्ध स्वभाव से प्रति समय परिणमन करते ही है। फिर वैभाविकी शक्ति भी तो एक गुण है। वह निमित्त हटने पर परिणमन रहित कैसे हो जायेगी? नहीं हो सकती। और ऐसा भी नहीं है कि कोई शक्ति परिणमन वाली हो और कोई न हो, सभी शक्तियों परिणमनशील हैं तथा ऐसा भी नहीं है कि कोई शक्ति कुछ समय तक तो परिणमन करे और फिर परिणमन रहित हो जाय। सोई अब उसे समझाते हैं: पारिणामात्मिका काचिच्छक्तिश्चापारिणामिकी । तगाहकप्रमाणस्याभावात् संदृष्ट्यभा ततः ॥ ८५७॥ अर्थ-कोई शक्ति परिणामी और कोई शक्ति अपरिणामी नहीं है क्योंकि ऐसा सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं । है और दृष्टान्त का भी अभाव है अर्थात् सब शक्तियौं स्वतः सिद्ध स्वभाव से परिणमनशील हैं। भावार्थ-द्रव्य में जितनी शक्तियाँ हैं। सभी प्रतिक्षण परिणमन करती रहती हैं। किसी शक्ति को परिणमनशील माना जाय और किसी को नहीं माना जाय या कुछ काल के लिये परिणामनशील माना जाये, इसमें कोई प्रमाण नहीं है और न कोई दृष्टान्त ही है। तस्माद्वैभाविकी शक्तिः स्वयं स्वाभविकी भवेत् । परिणमाल्मिका भावैरभावे कृत्रनकर्मणाम् ॥ ८५८॥ अर्थ-इसलिये परिणमनशील वैभाविकी शक्ति सम्पूर्ण कर्मों का अभाव होने पर स्वयं अपने भावों के द्वारा स्वाभाविक परिणमन करने लग जाती है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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