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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक २३९ भावार्थ-जल रूप द्रव्य या गुण नित्य रहता है। अग्नि रूप निमित्त की उपस्थिति में गरम रूप विभाव परिणमन करता है, अनुपस्थिति में शीतल रूप स्वभाव परिणमन करता है। निमित्त रूप अग्नि हटने पर न जल का नाश होता है और न परिणमन का अभाव होता है उसी प्रकार वैभाविकी शक्ति रूप गुण नित्य रहता है। द्रव्य कर्म के उदय रूप उपस्थिति में विभाव परिणमन करती है। अनुपस्थिति में स्वभाव परिणमन करती है। ऐसा शिष्य की शंका का समाधान दृष्टांतपूर्वक किया। भावार्थ ८४७ से ८५० तक-८४६ तक यह सिद्ध करके आये थे कि वैभाविकी शक्ति योग्य निमित्त की उपस्थिति में निमित्त के गणाकार रूप परिणमन कर जाती है जो उसकी बद्धत्व अवस्था है। उस पर शंकाकार दो प्रश्न पूछता है कि (२) जब निमित्त नहीं रहता तो क्या वह शक्ति ही मूल द्रव्य में से नाश हो जाती है। यदि नाश हो जाती है सब तो मुझे कुछ नहीं कहना है और यदि निमित्तले हरने पर भी वह शक्ति द्रव्य में विद्यमान रहती है तो (२)फिर उसका शद्ध परिणमन होता है या अशद्ध परिणमन होता है। उत्तर में आचार्य देव समझाते हैं कि निमित्त की अनुपस्थिति में नहीं होता क्योंकि वह त्रिकाली गण है। अन्य ज्ञान दर्शन आदि गुणों की तरह। यदि शक्ति का नाश कहोगे तो आज एक शक्ति का नाश, कल दूसरी का, फिर तीसरी का, इसी प्रकार द्रव्य का ही नाश हो जायेगा। अतः शक्ति का नाश तो होता ही नहीं। दूसरी बात का उत्तर यह है कि जब तक निमित्त का आश्रय करता है तब तक विभाव परिणमन होता है। निमित्त हटने पर स्वभाव परिणमन होता है। एक ही शक्ति के दो परिणमन है। एक परिणमन जरूर रहता है क्योंकि परिणमन तो पर्याय है पर्याय बिना गुण नहीं रहेगा। गुण बिना द्रव्य नहीं रहेगा। इस प्रकार उसकी शंका का समाधान किया । शंका ८५१ से ८५५ तक जनु चैवं चैका शक्तिरत्तदावो द्विविधो भवेत् । एक: स्वभाविको भाटो भावो वैभाविकोऽपरः ॥८५१॥ शंका-महाराज! आपके ऊपर कहे अनुसार तो एक शक्ति हुई उसका भाव ( परिणमन)दो प्रकार का हुआ - एक स्वभाविक भाव, दूसरा वैभाविक भाव । (यह शिष्य ने ऊपर की बात को ही दोहराया है। चेदवश्यं हि द्वे शक्ती सतास्त: का क्षतिः सताम् । स्वाभाविकी स्वभातौ: स्वैः रवैर्विभावैर्विभावजा || ८५२ ॥ शंका चालू-यदि अवश्य ऐसा ही है अर्थात् पदार्थ में स्वभाव-विभाव दोनों प्रकार के परिणमन होते हैं तो फिर वे दोनों परिणमन एक शक्ति के न मानकर पदार्थ में दो मूल शक्तियाँ ही क्यों न मान ली जावें-इसमें सतों (द्रव्यों) की क्या हानि है? स्वाभाविको अपने स्वभाव भावों से परिणमन करे और वैभाविकी अपने विभाव भावों से परिणमन करे। भावार्थ-शिष्य कहता है कि महाराज आप एक शक्ति मानकर उसके स्वभाव-विभाव दो प्रकार के परिणमनमान रहे हैं। इसकी बजाय शक्तियाँ ही दो स्वतन्त्र मान लो और उन दोनों का परिणमन भी स्वतन्त्र मान लो। स्वाभाविकी शक्ति अपने स्वभाव भावों में परिणमन करे और वैभाविक शक्ति अपने विभाव भावों में परिणमन करे। इससे द्रव्य स्वभाव में कुछ आपत्ति नहीं आती तथा सदावेऽथाप्यसदावे कर्मणां पुवालात्मनाम् । अस्तु स्वाभाविकी शक्तिः शुन्दै विराजिता ॥८५३। शंका चालू - पौद्गलिक कर्मों के सद्भाव अथवा असद्भाव में ( उदय या अनुदय में ) स्वाभाविकी शक्ति तो शुद्ध भावों से परिणमन करती रहे ( क्योंकि उसे तो निमित्त से कुछ प्रयोजन ही नहीं) और अरतु वैभाविकी शक्तिः संयोगात्पारिणामिकी । कर्मणामुदयाभावे न स्यात्सा पारिणामिकी ॥८५४॥ शंका चाल-और बैभाविकी शक्ति कर्मों के संयोग से तो परिणमनशील रहे और कर्मों के उदय के अभाव में वह परिणमनशील न रहे (कटस्थ बनकर द्रव्य में पड़ी रहे) अर्थात् कर्मों का जब तक आत्मा में सम्बन्ध रहेगा तब तक
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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