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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अवस्था है यह अर्थ श्री समयसार गा. ८२ की संस्कृत टीका में है। वहाँ से लिया है। अध्यात्म में बद्धत्व अशुद्धत्व में अज्ञानी का निरूपण होता है। अबद्धत्व शुद्धत्त्व में केवली का। ऐसी ही गुरु परम्परा है। यहाँ तक बंध का स्वरूप कहा । अब इसी को शंका समाधान द्वारा पीसते हैं।
शंका
ननु वैभाविकी शक्तिस्तथा स्यादन्ययोगतः । परयोगाद्विना किं न स्याद्वास्ति तथान्यथा ॥ ८४७ ॥
शंका- यह तो ठीक है कि वैभाविकी शक्ति अन्य के योग से अर्थात् निमित्त कारण की उपस्थिति में ऐसी हो जाती है अर्थात् बद्ध हो जाती है विभाव परिणमन करती है किन्तु ( १ ) क्या वह परयोग के बिना नहीं रहती है अर्थात् निमित्त के हटने पर क्या इस शक्ति की सत्ता का ही अभाव हो जाता है? या ( २ ) पर्याय में शुद्ध रहती है अथवा अशुद्ध रहती है?
भावार्थ - शिष्य जब यह समझ गया कि वैभाविकी शक्ति निमित्त में जुड़कर विभाव परिणमन करती है तो अब वह पूछता है कि निमित्त हटने पर क्या निमित्त के साथ उस शक्ति का भी नाश हो जाता है। यदि नाश हो जाता है तो ठीक है। यदि नाश नहीं हो जाता तो फिर उस शक्ति का शुद्ध परिणमन रहता है या अशुद्ध रहता है यह जानना चाहता है।
समाधान ८४८ से ८५० तक
सत्यं नित्या तथाशक्तिः शक्तित्वाच्छुद्धशक्तिवत् ।
अथान्यथा सतो नाशः शक्तीनां नाशतः क्रमात् ॥ ८४८ ॥
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अर्थ - ठीक है पहली शंका का उत्तर तो यह है कि वैभाविकी शक्ति नित्य है क्योंकि वह शक्ति (गुण) है अन्य शुद्ध शक्तियों की तरह । अन्यथा क्रम से शक्तियों का नाश होने से सत् का ही नाश हो जायगा। अर्थात् अन्य शक्तियों की तरह वैभाविकी शक्ति एक त्रिकाली शक्ति है। निमित्त के हटने पर उसका नाश नहीं होता क्योंकि गुण का कभी नाश नहीं होता । यदि गुण का नाश होने लगे तो द्रव्य का ही नाश हो जायेगा क्योंकि गुणों का समूह ही तो द्रव्य है ।
भावार्थ- आचार्य कहते हैं कि वैभाविक शक्ति वास्तव में है और वह नित्य है क्योंकि जो-जो शक्तियाँ होती हैं वे सब नित्य ही हुआ करती हैं। जिस प्रकार आत्मा की शुद्ध शक्तियाँ ज्ञान, दर्शनादिक नित्य हैं। इस प्रकार यह भी नित्य है । यदि इस वैभाविक शक्ति को नित्य नहीं माना जाय तो सत् पदार्थ का ही नाश हो जायगा क्योंकि शक्तियों ( गुणों का समूह ही तो पदार्थ है। जब शक्तियों का ही क्रम क्रम से नाश होने लगेगा तो पदार्थ भी अवश्य नष्ट हो जायेगा। अंश नाश से अंशी का नाश अवश्यंभावी है। इसलिये वैभाविकी शक्ति आत्मा का नित्य गुण है। यह पहली शंका का उत्तर दिया । अब दूसरी का देते हैं:
किन्तु तस्यास्तथाभावः शुद्धादन्योन्यहेतुकः ।
तन्निमित्ताद्विना शुद्धो भावः स्यात्केवलं स्वतः ॥ ८४९ ॥
अर्थ- दूसरी शंका का उत्तर यह है कि उसका शुद्ध से अन्य भाव अर्थात् विभाव भाव अन्य हेतुक अर्थात् निर्मित्त की उपस्थिति में होता है। उस निमित्त के बिना स्वतः केवल शुद्ध भाव होता है।
भावार्थ- जब शक्ति नित्य है तो उसका एक परिणमन तो अवश्य रहेगा। निमित्त की उपस्थिति तक विभाव परिणमन फिर स्वभाव परिणमन |
नासिद्धोऽसौ हि सिद्धांतः सिद्धः संदृष्टितो यथा ।
बह्रियोगाज्जलं चोष्णं शीतं तत्तदयोगतः ॥ ८५० ॥
अर्थ-निमित्त की उपस्थिति में वैभाविकी शक्ति का विभाव परिणमन होता है और निमित्त की अनुपस्थिति में स्वभाव परिणमन होता है यह सिद्धांत असिद्ध नहीं है। यह बात तो प्रसिद्ध दृष्टांत से भले प्रकार सिद्ध है जैसे जल अग के योग (निमित्त मात्र ) से उष्ण होता है और वही जल उस निमित्त रूप अग्नि के आश्रय के बिना शीतल होता है।