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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक भावार्थ-जिस प्रकार जीव में ज्ञान दर्शन, चरित्र आदि अनन्त गुण हैं। उसकी वैभाविकी शक्ति भी एक शुद्ध गुण कार पुद्गल में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुण हैं उसी प्रकार वैभाविकी शक्ति भी एक गुण है। जो-जो गुण हुवा करता है वह त्रिकाल रहता है अतः जीव में वह वैभाविकी शक्ति तो त्रिकाल रहेगी और जब वह बंध का कारण होगी तो बंध करती ही रहगी। अजीब के मोक्ष होने का अवकाश ही खत्म हो जायेगा। शक्ति को बंध का कारण मानने में यह दोष है। अतः शक्ति बंध का कारण नहीं है। उपयोगः स्यादभिव्यक्तिः शक्तेः स्वार्थाधिकारिणी । सैव बन्धस्य हेतुश्चेत् सर्वो बन्धः समस्यताम् ॥ ८४३ ॥ अर्थ-उपयोग शक्ति की अपने स्वतः सिद्ध स्वभाव से होने वाली अभिव्यक्ति स्वभाव की पूर्ण प्रगटता है। वह अभिव्यक्ति यदिबंधकाकारण होजावे तो सभी पदार्थ बंधविशिष्ट हो जावेंगे क्योंकि पर्याय की प्रगटता रूपस्वभाव तो सभी द्रव्यों में स्वतः सिद्ध स्वभाव से है।अत: वैभाविकी शक्ति का स्वभाव परिणामन भी बंध का कारण नहीं भावार्थ-वैभाविकी शक्ति का अपने स्वरूप को लिये हुवे प्रगटपना शुद्ध अवस्था में होता है। वह उक्त शक्ति का स्वभाव परिणामन कहलाता है। वह स्वभाव परिणमन बंध का कारण नहीं है। वह यदि बंध का कारण हो जाय तो सिद्धों के सदैव बंध होने लगोगा। यह दोष आता है। जब गुण कारण नहीं है, उसकी स्वभाव पर्याय कारण नहीं है फिर क्या कारण है यह अब बताते हैं: बंध का स्पष्टीकरण तस्मात तुसामग्रीसान्निध्ये तगुणाकृतिः । स्वाकाररस्य परायत्ता तथा बद्धोऽपराधवान ॥ ५५ ॥ अर्थ-इसलिये उस पराधीनता (विभाव)के योग्य निमित्त कारण रूप सामग्री की सन्निधि ( उपस्थिति निकट होने पर अपने आकार (स्वरूप) की उस निमित्त के गुण की आकृति रूप जो पराधीनता है अर्थात् निज विभाव परिणति है। उस निज विभाव परिणति से वह अपराधी पदार्थ स्वयं बंधा हुवा है। ___ भावार्थ-उस पदार्थ में जो विभाव होगा। उसके योग्य निमित्त की उपस्थिति चाहिये। जैसे क्रोध भाव के लिये द्रव्य क्रोध का उदय रूप निमित्त चाहिये। फिर उसकी सन्निधि होने पर मूल द्रव्य का जो मूल गुण जैसे आत्मा का ज्ञान गुण-वह गुण उस निमित्त के गुण की आकृति को धारण करे जैसे वह ज्ञान गुण द्रव्य क्रोध का गुण जो क्रोध उसकी आकृति को अर्थात् भाव क्रोध को धारण करे तो उस भाव क्रोध से वह ज्ञान गुणस्वयं अपने अपराध के कारण अर्थात् स्वयं निमित्त में जुड़कर विभाव परिणमन करने के कारण विभाव से बंध जाता है। इसको बंध कहते हैं। इसी प्रकार कार्माणवर्गणारूप पुद्गलों को जब जीव के राग की उपस्थिति मिलती है तो वे भी अपने असली स्वभाव से डिगकर ज्ञानावरणादिकर्मरूप में परिणत हो जाती हैं। उस पदगल में उस कर्मरूप परिणति का होना ही उसकी बद्धत्व अवस्था है। अब इसको से स्पष्ट करते हैं:- . जासिद्धं तत् परायत्तं सिद्धसंदृष्टितो यथा 1 शीतमुष्णमिवात्मानं कुर्वन्नात्माप्यनात्मवित् ॥ ८४५ ॥ अर्थ-वह पराधीनता असिद्ध नहीं है किन्तु प्रसिद्ध दृष्टांत से सिद्ध है जैसे अज्ञानी आत्मा शीत-उष्ण पदार्थ का निमित्त होने पर अपने को ही शीत-उष्णमान लेता है (यह शीत-उष्ण मानने रूपविकार परिणति ही बद्धत्व है। उसी प्रकार सभी जीव राग-द्वेष-मोह रूप द्रव्य कर्म का निमित्त मिलने पर अपने को ही रागी-द्वेषी-मोही मान लेता है। (श्री समयसारजी गा. १२ टीका) तद्यथा मूर्तद्रव्यस्य शीतश्चोष्णो गुणोऽरिवलः । आत्मनश्चाप्यमूर्तस्य शीतोष्णानुभवः क्वचित् ॥ ८४६ ।। अर्थ-वह इस प्रकार कि शीत-उष्ण सम्पूर्ण गुण पुद्गल द्रव्य का है। फिर भी अमूर्तिक आत्मा के शीत-उष्ण का अनुभव बद्धत्व अवस्था में होता है यह, प्रत्यक्ष देखा जाता है। क्वचित् शब्द का अर्थ बद्धत्व अवस्था अर्थात् अज्ञान
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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