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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रतिज्ञा ननु बद्धत्वं किं नाम किमशुद्धत्वमर्थतः ।
वावदूकोऽथ संदिग्धो बोध्यः कश्चिदिति कमात् ।। ८३९ ।। अर्थ-पदार्थ रूप से बद्धपना क्या है और अशुद्धपना क्या है ऐसा कोई वावदूक ( पदार्थ को सूक्ष्मता से समझने वाला) और संदिग्ध (संदेह रखने वाला) पूछता है। अब क्रम से पहले बद्धता फिर अशद्धता उसे समझाते हैं।
बद्धत्व का निरूपण ८४० से ८७९ तक ४०
बन्ध का लक्षण अर्थाद्वैभाविकी शक्तिर्या सा चेदुपयोगिनी ।
तगुणाकारसंक्रान्तिर्बन्ध स्यादन्यहेतुकः ॥ ८४0 ॥ अर्थ-पदार्थ में एक वैभाविकी शक्ति है। वह यदि उपयोगी होते अर्थात् निमित्त में जुड़कर विभाव रूप कार्य करती होवे तो उस पदार्थ की अपने गुण के आकार की अर्थात् असली स्वरूप की जो उस निमित्त के आधार रूपांजुड़ान रूप संक्रान्ति-च्युति-विभाव परिणति है वह संक्रान्ति ही अन्य (द्रव्य कर्म का उदय ) है निमित्त जिसमें ऐसा बंध है। यहाँ एक द्रव्य के विभाव परिणमन को बन्ध कहा गया है। यह बन्थ का लक्षण है। जैसे ज्ञान का राग रूप परिणमना बन्ध है। द्रव्य कर्म को बंध या बद्धत्व यहाँ नहीं कहते।।
भावार्थ-छह द्रव्यों में से जीव और पुद्गल दो में वैभाविकी नाम की शक्ति है। यह एक स्वतःसिद्ध गुण है। यह बन्ध का कारण नहीं है यह तो सिद्धों में भी है। जो-जो शक्ति होनी है उसका स्वभाव परिणमन भी अवश्य होता है। अतः इस शक्ति का सिद्ध में और परमाणु में शुद्ध स्वभाविक परिणमन है। वह परिणमन भी बंध का कारण नहीं है किन्तु निमित्त की उपस्थिति में जब यह शक्ति निमित्त से जुड़कर विभाव रूप परिणमती है। यह विभावरूप परिणमना ही बंध है। यह जीव और पुद्गल दो में ही होता है जैसे ज्ञान का राग रूप परिणमना ही बंध है। पुद्गल का कर्म रूप परिणमना ही बन्ध है। अब इसी को आचार्य देव स्वयं स्पष्ट करते हैं।
तन्त्र बन्धे न हेतु: स्याच्छक्तिः वैभाविकी परम ।
जोपयोगोऽपि सकिन्तु परायत्तं प्रयोजकम् ॥ ८४१॥ अर्थ-उस बन्ध में अर्थात् विभाव में केवल वैभाविकी शक्ति कारण नहीं है और उसका उपयोगी अर्थात् पूर्ण स्वभाव पर्याय भी कारण नहीं है किन्तु वह पराधीनता कारण है। अर्थात् निमित्ताधीन परिणमना ही कारण है।
भावार्थ-यदि बंध का कारण वैभाविकी शक्ति ही हो तो वह शक्ति नित्य है। सदा आत्मा में रहती है। इसलिये आत्मा में सदा बंध ही होता रहेगा। आत्मा मुक्त कभी न होगा अथवा मुक्त आत्मा भी बंध करने लगेगा। इसलिये केवल शक्ति ही बंध का कारण नहीं है। तथा केवल उपयोग भी नहीं है। उपयोग नाम शक्ति के परिणमन का है। वह उपयोग शक्ति स्वभाव अवस्था में भी होता है और विभाव अवस्था में भी होता है। यदि शक्ति का शुद्ध उपयोग भी बंध का कारण हो तो भी वही दोष आता है जोकि ऊपर कहा जा चुका है। इसलिये पुद्गल है निमित्त जिसमें ऐसा जो वैभाविकी शक्ति का विभाव रूप उपयोग है वहीं बंध का कारण है। __ अगली भूमिका - बन्ध में वैभाविकी शक्ति अर्थात् गुण कारण नहीं है क्योंकि गुण तो त्रिकाल रहता है। यह आगे ८४२ में भी कहा है। उस शक्ति का स्वभाव परिणमन भी कारण नहीं है क्योंकि स्वभाव परिणमन तो सिद्धों में तथा शुद्ध पुद्गल परमाणु में भी रहता है । यह आगे ८४३ में भी कहा है किन्तु वह शक्ति अपने योग्य निमित्त में जुड़कर अपने विभाव उत्पन्न कर लेती है। उस विभाव रूप पराधीनता से वह पदार्थ बन्ध जाताना आगे ८४४ में भी कहा है। वह विभाव रूप पराधीनता ही बंध में कारण है।
अस्ति वैभाविकी शक्तिस्तत्तदम्योपजीविली ।
सा चेद्वन्धरय हेतुः स्यादर्थान्मुक्तेरसंभवः ॥ ८४२ ॥ अर्थ-वैभाविकी शक्ति उस-उस (जीव पुद्गल) द्रव्य का अनुजीवी गुण है। वह (शक्ति)ही यदि बन्ध का कारण हो जावे तो जीव की कभी मुक्ति ही नहीं हो सकती क्योंकि गण तो उसमें त्रिकाल रहेगा।