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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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भावार्थ-आत्मा के अमूर्तिक होने पर भी वह मूर्तिककर्म-पुद्गलों के साथ कैसे बंधता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्यदेव ने कहा है कि-आत्मा के अमूर्तिक होने पर भी वह मूर्तिक पदार्थों को कैसे जानता है? जैसे वह मूर्तिक पदार्थों को जानता है उसी प्रकार मूर्तिक कर्म पुद्गलों के साथ बंधता है। __ वास्तव में अरूपी आत्मा का रूपी पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध न होने पर भी अरूपी का रूपी के साथ सम्बन्ध होने का व्यवहार भी विरोध को प्राप्त नहीं होता। जहाँ यह कहा जाता है कि "आत्मा मूर्तिक पदार्थों को जानता है वहाँ परमार्थतः अभूर्तिक आत्मा का मूर्तिक पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका तो मात्र उस मूर्तिक पदार्थ के आकाररूप होने वाले ज्ञान के साथ ही सम्बन्ध है, और उस पदार्थाकार ज्ञान के साथ के सम्बन्ध के कारण ही 'अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पदार्थ को जानता है' ऐसा अमूर्तिक-मूर्तिक का सम्बन्ध रूप व्यवहार सिद्ध होता है। इसी प्रकार जहाँ यह कहा जाता है कि 'मुक अकार्ति- सगल के बंध है वहाँ परमार्थतः अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्म पदगलों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा का तो कर्म-पुद्गल जिसमें निमित्त हैं ऐसे रागद्वेषादि भावों के साथ ही सम्बन्ध (बंध ) है, और उन कर्म-निमित्नक रागद्वेषादि भावों के साथ सम्बन्ध होने से ही इस आत्मा का मूर्तिक कर्मपुद्गलों के साथ बंध है ऐसा अमूर्तिक-मूर्तिक का बंधरूप व्यवहार सिद्ध होता है। ___ यद्यपि मनुष्य को स्त्री-पुत्र-धनादि के साथ वास्तव में कोई सम्बन्ध नहीं है, वे उस मनुष्य से सर्वथा भिन्न हैं,तथापि स्त्री-पुत्र-धनादि के प्रति राग करने वाले मनुष्य को राग का बंधन होने से, और उस राग में स्त्री-पुत्र-धनादिक के निमित्त होने से व्यवहार से यह अवश्य कहा जाता है कि 'इस मनुष्य को स्त्री-पुत्र-धमादि का बंधन है, इसी प्रकार, यद्यपि
माकाकर्म पदगलों के साथ वास्तव में कोई सम्बन्ध नहीं है, वे आत्मा से सर्वथा भिन्न हैं. तथापि रागद्वेषादि भाव करने वाले आत्मा को रागद्वेषादि भावों का बंधन होने से और उन भावों में कर्म पदगल निमित्त होने से व्यवहार से यह अवश्य कहा जा सकता है कि "इस आत्मा को कर्म पुद्गलों का बंधन है।"
___ आत्मा और कर्म के बंध की सिद्धि समाप्त
चौथा अवान्तर अधिकार (१)बद्धत्व (२)अशुद्धत्व (३) और दोनों का अन्तर ८३९ से १०० तक ६२ विषय परिचय-पहले ८३९ से ८७९ तक बद्धत्व का निरूपण करेंगे। फिर ८८० से ८९५ तक अशुद्धत्व का निरूपण करेंगे। फिर ८९६ से १०० तक बद्धत्व और अशुद्धत्व का अन्तर बतलायेंगे । इसका सार यह है कि (१) द्रव्य की परगुणाकार रूप निज क्रिया अर्थात विभाव परिणमन को बद्धत्व या बंधकहते हैं, जैसे-ज्ञान का राग रूप परिणामना बद्धत्व है। इसके लक्षण सूत्र ८४०,८४४ तथा ८९८ की प्रथम पंक्ति है। द्रव्य कर्म को या द्रव्यकर्म से जीव के बंधने को बद्धत्व नहीं कहते ।(२) उस बंध अर्थात विभाव के कारण मुल द्रव्य के निज गुण का अपने स्वभाव कार्य से च्युत होना अशुद्धत्व है जैसे ज्ञान का अज्ञानरूप होना अशुद्धत्व है। ज्ञान का स्वभाव एक समय में लोकअलोक को जानने का था। अशुद्ध दशा में आकर वह प्रत्यर्थ परिणमनशील हो गया अर्थात् जिस पदार्थ को जानने लगा उसीके प्रति रागी-द्वेषी-मोही हो गया। यह उसकी अशुद्ध दशा है। इसके लक्षण सूत्र ८८० तथा ८९८ की दूसरी पंक्ति है। अशुद्धत्व में दूसरा द्रव्य नहीं लिया जाता है। (३) एक अन्तर तो यह है कि बंध कारण है और अशुद्धत्व कार्य है क्योंकि बंध के बिना अशुद्धता नहीं होती अर्थात् विभाव परिणमन किये बिना ज्ञान की अज्ञानरूप दशा नहीं होती।ज्ञान का विभाव परिणमन बद्धत्व है और उसकी अज्ञान दशा अशुद्धत्व है। समय दोनों का एक ही है। यहाँ बद्धत्व कारण है और अशुद्धत्व कार्य है। इसका लक्षणसूत्र ८९९ है। दूसरा अन्तर यह है कि बंध कार्य है क्योंकि बंध अर्थात् विभाव पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से होता है और अशुद्धत्व कारण है क्योंकि वह नएकर्मों को खींचती है अर्थात् उनके अन्धने के लिये निमित्त मात्र कारण हो जाती है। इसका लक्षण सूत्र ९०० है। पहले अन्तर में बंध कारण है दूसरे में बन्ध कार्य है। पहले अन्तर में अशुद्धत्व कार्य है दूसरे में कारण है यही बद्धत्व और अशुद्धत्व दोनों में अन्तर है। इसका सूत्र ८९७ है। ये लक्षण सुत्र पुनः पुनः विचारने तथा कण्ठस्थ करने योग्य हैं। फिर विषय के समझने में सरलता हो जायेगी। सार इतना ही है कि ज्ञान का रागरूप परिणमना बन्थ है और उस राग के कारण ज्ञान की अज्ञान अवस्था होना अशुद्धत्व है। बद्धत्व यही भावकर्म का नाम है-द्रव्यकर्म का नहीं। अन्तर दोनों में कारण कार्य भाव है।