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________________ २३४ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी गरम तो पुद्गल है आत्मा तो अमूर्त है,वह तो छू भी नहीं सकता किन्तु यह निमित्त में जुड़कर होने वाली हमारे ज्ञान की प्रत्यक्ष विभाव क्रिया है किन्तु जहाँ केवली भगवान विराजमान है वहाँ ठण्डी-ठण्डी वायु चलती है किन्तु उनका ज्ञान उसमें जरा भी नहीं जुड़ता, मात्र जानता ही रहता है। यह प्रत्यक्ष आत्मा की स्वभाव क्रिया का दृष्टांत है। उपसंहार ततः सिद्धः सुदृष्टान्लो मूर्त ज्ञालद्वयं यथा । अस्त्यमूर्तोऽपि जीवात्मा बद्धः स्यान्मूर्तकर्मभिः ॥ ८३८ ।। अर्थ-इसलिये यह दृष्टांन्त से सिद्ध हो गया कि जैसे मतिश्रुत ज्ञान दोनों अमूर्त होकर भी मूत हैं उसी प्रकार अमूर्त जीवात्मा भी मूर्त कर्मों से बंधा हुआ है। भावार्थ-केवल ज्ञान अमूर्त है और मतिश्रुत मूर्त हैं यही तो बताता है कि अमूर्त आत्मा मूर्त कर्मों से बन्ध हुआ है क्योंकि ज्ञान है सो आत्मा है और आत्मा है सो जान है। आत्मा मूर्त है इसका अर्थ बस इतना ही है कि जब तक वह निमित्त में जुड़कर विभाव रूप अपने में परिणमता है तब तक 'मूर्त है' - कहो, या 'कर्मों से बन्धा हुआ है' - कहो एक ही बात है। कहीं आत्मा स्वयं मूर्त नहीं हो जाता। जीव से पुद्गल नहीं हो जाता । प्रमाण-यही शंका और यही समाधान और यही मूर्त-अमूर्त, बद्ध-अवद्ध का अर्थ श्री कुन्दकुन्द तथा श्री अमृतचन्द्र देव ने श्री प्रवचनसार गा. १७३, १७४ में लिखा है। वहीं से ही श्री पंचाध्यायीकार ने लेकर विशद स्पष्ट कर दिया है। वह इस प्रकार है:___अब, अमूर्त आत्मा के, स्निग्धरूक्षत्व का अभाव होने से बंध कैसे हो सकता है? ऐसा पूर्व पक्ष उपस्थित करते शंका मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फारसहि अणभ । तवितरीदो अप्पा बज्झटि किध पोग्गलं कम्मं ॥ १३ ॥ शंका - मूर्त (पुद्गल ) रूपादिगुणयुक्त होने से परस्पर (बन्ध-योग्य ) स्पर्शों से बंधता है, (परन्तु ) उससे विपरीत (अमूर्त ) आत्मा पौद्गलिक कर्म को कैसे बांधता है अब यह सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि आत्मा के अमूर्त होने पर भी इस प्रकार बन्ध होता है: समाधान रूवाटिएहिं रहिटो पेच्छदि जाणादि सतमादीणि । दवाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥ १७ ॥ अर्थ-जैसे रूपादि रहित (जीव) रूपादि को-द्रव्यों को तथा गुणों को ( रूपी द्रव्यों को और उनके गुणों . को)-देखता है और जानता है उसी प्रकार उसके साथ ( अरूपी का रूपी के साथ) बंध जानो। टीका-जैसे रूपादिरहित (जीव) रूपी द्रव्यों को तथा उनके गुणों को देखता है तथा जानता है, उसी प्रकार रूपादिरहित (जीव)रूपी कर्मपुदगलों के साथ बंधता है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यहाँ भी ( देखने-जानने के सम्बन्ध में भी) यह प्रश्न अनिवार्य है कि अमूर्त मूर्त को कैसे देखता- जानता है। और ऐसा भी नहीं है कि यह ( अरूपी का रूपी के साथ बंध होने की ) बात अत्यन्त दुर्घट है इसलिये उसे दाष्टान्तरूप बनाया है, परन्तु आबालगोपाल सभी को प्रगट (ज्ञात)होजाय इसलिये दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। यथा:-बाल-गोपालका पृथक रहने वाले मिट्टी के बैल को अथवा ( सच्चे ) बैल को देखने और जानने पर बैल के साथ संबंध नहीं है तथापि विषयरूप से रहने वाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगारूढ़, वृषभाकर दर्शन ज्ञान के साथ का सम्बन्ध बैल के साथ के संबंध रूप व्यवहार का साधक अवश्य है, इसी प्रकार आत्मा अरूपित्व के कारण स्पर्शशून्य है, इसलिये उसका कर्म पुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाहरूप से रहने वाले कर्म पुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगारूढ़ रागद्वेषादि भावों के साथ का सम्बन्ध कर्म पुद्गलों के साथ के बंध रूप व्यवहार का साधक अवश्य है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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