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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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अध्यात्म का ऐसा भी नियम है कि ज्ञानी के विभाव क्रिया तो कहते ही नहीं और स्वभाव क्रिया अभी अधूरी है अत: उसे गौण रखकर मौन ही रहते हैं ऐसा ही अध्यात्म में गुरुओं का नियम चला आ रहा है क्योंकि ज्ञानी ने पर में एकत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व का भाव तो बिल्कुल छोड़ दिया है। ज्ञान मार्ग पर आरूढ़ है ( श्री पंचास्तिकाय गा.७०)। उसे विभाव क्रिया का कर्ता कैसे कहें ? अतः विभाव में तो अध्यात्म में उसका दृष्टान्त आता ही नहीं। और स्वभाव क्रिया है आत्मा
की केवल ज्ञान। अतः उपर्युक्त गुरु परम्परा ही ठीक है। बस इसी बात को आचार्य महाराज अब स्वयं उत्तर रूप में शिष्य को ८३४ से ८३८ नक मापया कर आत्मा और नाई का संमिद करते हैं:
समाधान ८३४ से ८३८ तक नैव यतो विशेषोऽरित बद्धाबद्भावबोधयोः ।
मोहकर्मावृतो बद्धः स्याटबद्धस्तदत्ययात् ॥८३५॥ अर्थ-आत्माकीस्वभाव किया और विभाव क्रिया दोनों भिन्न-भिन्न नहीं हैं ऐसा नहीं है क्योंकि बद्ध-अबद्धज्ञानों में विशेषता है। मोहकर्म से ढका हुआ अर्थात् उसमें जुड़ा हुआ ज्ञान तो बद्ध है और उस (मोहकर्म)के नाश से अबद्ध है। अब इसी को स्वयं स्पष्ट करते हैं:
भावार्थ-जो पहले शंकाकार की तरफ से यह कह गया था कि ज्ञेयाकार होने वाला भी ज्ञान ही है तथा मदिरा के निमित्त से बदला हुआ ज्ञान भी ज्ञान ही है, ज्ञानपना दोनों में समान है, उसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि यह बात नहीं है क्योंकि बिना किसी अन्य निमित्त के (केवल ज्ञेय के निमित्त से ज्ञेयाकार होने वाले ज्ञान में और मदिरा के निमित्त से बदलने वाले ज्ञान में बहुत अन्तर है। मदिरा के निमित्त से जो ज्ञान बदला है वह मलिन है, उस ज्ञान में यथार्थता नहीं है। यथार्थता उसी ज्ञान में है जो वस्तु को यथार्थ रीति से ग्रहण करता है। जो ज्ञान केवल ज्ञेय के निमित्त से ज्ञेयाकार होता है बह वस्तु को यथार्थ ग्रहण करता है। मदिरा के निमित्त वाला नहीं। इसलिये दोनों ज्ञानों में बड़ा अन्तर है।
इसी प्रकार जीवों का ज्ञान दो प्रकार का है, एक बद्धज्ञान, दूसरा अबद्धज्ञान। जो मोहनीय कर्म से ढका हुआ है उसे तो बद्ध अर्थात् बंधा हुआ ज्ञान कहते हैं और जो ज्ञान मोहनीय कर्म से रहित हो चुका है वह ज्ञान अबद्ध कहलाता है। बद्ध और अबद्ध ज्ञान में बड़ा अन्तर है। अब इसी को स्वयं स्पष्ट करते हैं:
बद्ध ज्ञान का लक्षण मोहकर्मावृतं ज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत् ।
इष्टा लिष्टार्थसंयोगात् स्तर्य रज्यद् द्विषद् यथा ॥ ८३५ ॥ अर्थ-जो ज्ञान मोह कर्म से आच्छादित है वह प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमनशील है। वह इस प्रकार कि - इष्टअनिष्ट पदार्थ के संयोग से स्वयं रागी द्वेषी हो जाता है अर्थात् जिस पदार्थ को वह जानता है उसमें अच्छे-बुरे की कल्पना करके राग-द्वेष करने लगता है यह तो ज्ञान की विभाव क्रिया है और
अबद्ध ज्ञान का लक्षण तत्र ज्ञानमबद्धं स्यान्मोहकर्मातिगं यथा ।
क्षायिकं शुद्धमेवैतल्लोकालोकावभासकम् ।। ८३८ ॥ अर्थ-और जो मोहकर्म से रहित ज्ञान है वह अबद्ध है। वह क्षायिक, शुद्ध और लोक-अलोक का प्रकाशक है अर्थात् जो ज्ञान सब पदार्थों को मात्र जानता ही है। किसी में राग द्वेष नहीं करता वह उसकी स्वभाव किया है।
नासिद्धं सिद्भदृष्टान्तात् एतद् दृष्टोपलब्धितः ।
___ शीतोष्णाजुभवः स्वस्मिन् न स्यातज्ज्ञे परात्मनि ॥ ८३७ ॥ अर्थ-यह ( ज्ञान का बद्ध अबद्धपना) असिद्ध नहीं है किन्तु प्रसिद्ध दृष्टांत से सिद्ध है और प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि शीत उष्ण का अनुभव अपने में तो होता है पर उस शीत-उष्ण को जानने वाले परमात्मा में नहीं होता अर्थात् हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि ठण्डी-गरम वस्तु का संयोग होने पर हम तो अपने को ही गरम या ठण्डा मानने लगते हैं लेकिन केवली ऐसा नहीं मानता। अभी मकान में आग लग जाये तो हम रोने लगते हैं कि अरे मैं जला, कोई बचाओ, भाई