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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अपि चार्थपरिच्छेदि ज्ञानं स्वं लक्षणं चितः ।।
ज्ञेयाकारक्रिया चास्य कुतो वैभाविकी किया ॥८३२ ॥ शंकाचालू-जैसे पदार्थ को जानने वाला ज्ञान आत्मा का स्व लक्षण (गुण) है और ज्ञेयाकार (जानना) उसकी किया है फिर वैभाविकी क्रिया उसमें और कौन-सी?
भावार्थ-शंकाकार कहता है कि पदार्थ को जानने वाला जो ज्ञान है वह इस जीवात्मा का निज लक्षण है। उस ज्ञान में जो ज्ञेय के आकार रूप क्रिया होती है वह क्रिया अर्थात् जानना ज्ञान का पर्याय रूप स्वभाव है। फिर वैभाविकी किया ज्ञान में और कौन-सी है? कोई नहीं क्योंकि और किया तो ज्ञान में कोई होती ही नहीं। हाँ अगर ज्ञान ज्ञेय रूप भी हो जाया करता तो वैभाविक क्रिया भी बन जाती सो होता नहीं।
तरमाद्यथा घटाकृत्या घटज्ञानं न तद घटः ।
मद्याकृत्या तथा ज्ञानं ज्ञानं ज्ञानं न तस्मयम् ॥ ८३३॥ शंका चालू-शंकाकार कहता है कि जिस समय ज्ञेय के निमित्त से ज्ञान ज्ञेयाकार हो जाता है, उस समय ज्ञान ज्ञान ही रहता है, वह ज्ञेय नहीं हो जाता। दृष्टांत के लिये घटज्ञान को ही ले लीजिये। जिस समय ज्ञान घटाकार होता है उस समय घटज्ञान जान ही नो है, वह घरज्ञान घर नहीं बन जाता। इसी प्रकार मदिरा के निमित्त से जो ज्ञान मद्याकार अर्थात् मलिन तथा मूञ्छित हो जाता है, वह भी ज्ञान ही है, ज्ञान मदिरामय ( मदिरारूप) कभी नहीं हो सकता। यदि ज्ञान घटरूप तथा मदिरारूप भी हो जाया करता तो वह उसकी वैभाविकी क्रिया बन जाती । सो होता नहीं। अतः ज्ञान की स्वाभाविकी किया तो है वैभाविकी क्रिया कोई नहीं।
शंकाकार का आशय-वह अपनी शंका को स्पष्ट करता है कि देखिये ज्ञान आत्मा का गुण है। जानना उसका कार्य है। घट को जानते समय घटाकार होना उसकी स्वभाव क्रिया है। अगर वह घट रूप भी हो जाया करता तो वह उसकी विभाव क्रिया बन जाती पर ऐसा होता नहीं है अतः विभाव क्रिया और कुछ नहीं है। उसी प्रकार ज्ञान आत्मा का गुण है। जानना उसका कार्य है। मद्य को जानते समय मद्याकार होना उसकी स्वभाव किया है। अगर वह पद्य रूप हो जाया करता तो वह उसकी विभाव क्रिया बन जाती किन्तु ऐसा होता नहीं है अतः आपने ऊपर ८२९ में यह कैसे कह दिया कि सत् की स्वभाव क्रिया भी है और विभाव क्रिया भी है तथा स्वभाव किया के कारण उसे अमुर्त कहते हैं और विभाव क्रिया के कारण उसे मूर्त कहते हैं। ___समाधान-आप समझ गये होंगे उसने क्या भूल की है। ज्ञान आत्मा का गुण है। घट को जानते समय वह अपना जानने का ठीक-ठीक कार्य करता है। इसलिये यह तो उसकी स्वभाव क्रिया का दृष्टान्त था और मद्य के निमित्त में जुड़ा हुआ ज्ञान उसको जानने का काम तो नहीं करता उलटा जाननापना खो बैठता है या यद्वा तद्वा माँ बहिन को स्त्री या स्त्री को माँ बहिनवत् जानने लगता है यह उसकी विभाव क्रिया का दृष्टान्त था। भाई विभाव क्रिया का यह अर्थ नहीं कि वह द्रव्य ही निमित्तरूप हो जाता है किन्तु यह अर्थ है कि वह अपने असली कार्य को भूलकर ( छोड़कर) विपरीत कार्य करने लगता है। शंकाकार ने स्वभाव और विभाव क्रिया के दोनों दृष्टान्तों को एक स्वभावरूप में सम्मिलित करके विभाव क्रिया को उड़ा ही दिया है। सो अब उसके उत्तर में उसे आचार्य महाराज समझाते हैं कि भाई मद्यपदार्थवत् अनादि से आत्मा के साथ एक् मोहनीय कर्म निमित्तरूप है। मद्यवत् उसमें जुड़ा हुआ ज्ञान स्व पर के भेद
स्त्री कहने की तरह पर को ही स्वरूप जानने लगता है यह तो उसकी विभाव क्रिया है और मोहनीय कर्म का सर्वथा नाश होने पर केवली होकर सम्पूर्ण स्व पर को जानता ही है किसी को अपना-पराया नहीं मानता यह | उसकी स्वभाव क्रिया है। सो अनादि से आत्मा उसी मोहकर्म में जुड़कर विभाव परिणमन कर रहा है इसलिये तो उसे । मूर्त कहते हैं और कर्मों से बंधा हुआ है यह कहते हैं और उस निमित्त के जुड़ने का अभाव होने पर अर्थात् केवली | होने पर उसे ही अमूर्त कहते हैं। इससे प्रत्यक्ष है कि आत्मा और कर्म का बंध है। अध्यात्म का ऐसा नियम है कि जब विभाव दिखाना होता है तो अज्ञानी का दृष्टान्त लेते हैं और जब स्वभाव दिखाना होता है तो केवली का दृष्टान्त लेते हैं। चौथे से बारहवें तक की दशा गौण रूप से छोड़ देते हैं। क्यों ? उत्तर यह है कि पहले में पूरा विभाव है और केवली में पूरा स्वभाव है। अतः इस कथन से पदार्थ निर्दोष निरूपित होता है और विषय बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। व्यभिचार दोष नहीं आता। चौथे से बारहवें तक एकदेश स्वभाव और एकदेश विभाव रहने से उसका कथन ही नहीं करते। दूसरे