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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक २३१ DET - अर्थ-और जो मति श्रुत ज्ञान उपचार से मूर्त कहा गया है वह उपचार भी असिद्ध नहीं है क्योंकि मति श्रुत ज्ञान उपचार दृष्टि से वास्तव में मूर्त है क्योंकि वस्तु की शक्तियों की स्वतः अपने अपराध के कारण विचित्रता देखी जाती है (अर्थात् अपनी वैभाविक शक्ति के कारण वह स्वयं मूर्त द्रव्य के निमित्त में जुड़कर विकारी हो जाता है। अतः मूर्तिक निमित्त में स्वतः जुड़कर विभाव परिणमन करने के कारण उसे भी उपचार से मूर्तिक ठीक कहा है। आगे इसी का स्पष्टीकरण है। भावार्थ-मतिज्ञान श्रुतज्ञान को वास्तव में अमूर्त कहा गया है और उपचार से मूर्त कहा गया है। उस उपचार को कुछ न समझकर या असिद्ध समझकर जो कोई उक्त ज्ञानों को सर्वथा अमूर्त ही समझते हों, उनके लिये कहा जाता है कि वह उपचार सकारण है। वास्तविक है। पहले ७८६ के भावार्थ में कह आये हैं। फिर भी वह इस प्रकार है:-वस्तु अपनी सीमा को उल्लङ्गन नहीं करती यह तो ठीक ही है इसलिये तो आत्मा हर अवस्था में अमूर्त ही रहता है किन्तु जहाँ यह वस्तु स्वभाव है कि पदार्थ अपनी सीमा को नहीं छोड़ता वहाँ उसमें अनेक प्रकार की विचित्र-विचित्र शक्तियाँ भी होती हैं। आत्मा में निमित्त जुड़कर विभावरूप परिणमन करने वाली शक्ति स्वतःसिद्ध स्वभाव से है। जब वह शक्ति स्वयं अपने अपराध के कारण मूर्तिक निमित्त में जुड़कर अपने में विभाव परिणमन कर लेती है और उसके कारण : आत्मा अपने मूल स्वभाव को छोड़कर अशुद्ध अवस्था को धारण कर लेती है। उस अशुद्धता के कारण उसे भी उपचार से मत ता है जो वास्तव में ठीक है।धर्म द्रव्य में कोई ऐसी शक्ति नहीं है कि किसी निमित्त में जुड़कर विभाव परिणमन करे अतः उस पर मूर्तपने का उपचार नहीं किया जा सकता। अप्यरत्यनादिसिद्धस्य सतः स्वाभाविकी क्रिया । वैभाविकी क्रिया चारित पारिणामिकशक्तितः ॥ ८२९॥ अर्थ-पारिणामिक शक्ति से (स्वतः सिद्ध परिणमन स्वभाव से) अनादि सिद्ध सत् की स्वाभाविकी क्रिया भी है और वैभाविकी क्रिया भी है । अर्थात् सत् स्वभाव रूप और विभाव रूप दोनों रूप स्वतः अनादि से परिणमता है। न परं स्यात्परायता सतो वैभाविकी क्रिया ।। यस्मात्सतोसती शक्तिः कर्तमन्यैर्न शक्यते ॥ ८30॥ अर्थ-सत् की वैभाविकी क्रिया केवल पराधीन ( परकृत) नहीं है क्योंकि सत् की असती ( अविद्यमान ) शक्ति दूसरों के द्वारा ( निमित्त द्वारा) नहीं की जा सकती है। भावार्थ-कोई यह समझे कि आत्मा का कुछ दोष नहीं । विभाव रूप तो उसे निमित्त परिणमाता है तो उससे कहते हैं कि जो शक्ति उपादान में न हो वह उसे निमित्त नहीं दे सकता। किसी द्रव्य की शक्ति दूसरे द्रव्य में काम नहीं करती। आत्मा में स्वतः सिद्ध वैभाविकी गुण है और वह स्वयं अपने अपराध के कारण निमित्त में जुड़ कर विभाव परिणमन करता है। निमित्त तो मात्र उदासीन कारण है। उसकी तो उपस्थिति मात्र है। आत्मा में अन्य गुणों की तरह एक वैभाविक गुण भी है उस वैभाविक गुण का विभाव परिणमन और स्वभाव परिणमन होता है। यदि वैभाविक गुण आत्मा का निज गुण न होता तो आत्मा में विभावरूप परिणमन भी नहीं हो सकता था। शंका ८३१ से ८३३ तक ननु वैभाविकभावाख्या किया चेत्यारिणामिकी । स्वभाविक्याः क्रियायाश्च कः शेषो हि विशेषभाक ॥ ८३१|| शंका-यदि वैभाविक भाव नाम की क्रिया पारिणामिकी (स्वतःसिद्ध) है तो स्वाभाविकी क्रिया से विशेष (अन्तर) को धारण करने वाली इसमें क्या विशेषता है ? भावार्थ-शंकाकार कहता है कि यदि द्रव्य की विभावरूप क्रिया(परिणति-भाव) भी स्वतःसिद्ध है और स्वभाव रूप क्रिया भी स्वतःसिद्ध है तो फिर स्वभाव रूप क्रिया से विभावरूप क्रिया में क्या विशेषता है अर्थात् आप दोनों को अलग-अलग समझाइये क्योंकि हमारे विचार से तो स्वभाव क्रिया तो है। विभाव क्रिया कोई वस्तु नहीं है। यदि अव्य स्वभाव क्रिया में अपने रूप परिणमन करता और विभाव क्रिया में निमित्त रूप हो जाया करता तब तो दोनों क्रियायें बन जाती पर ऐसा होता नहीं है। अतः स्वभाव रूप क्रिया तो है। विभाव रूप क्रिया कोई चीज नहीं है अब शंकाकार अपनी उसी शंका को स्वयं दो श्लोकों द्वारा दृष्टान्त देकर स्पष्ट करता है:
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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