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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रश्न आकाश के पुष्प की तरह सर्वथा निष्फल है। जिस प्रकार आकाश के पुष्प नहीं ठहरते उसी प्रकार यह प्रश्न भी नहीं ठहरते
चेत बुभुत्सारित चित्ते ते स्यात्तथा वान्यथेति वा ।
स्वानुभूतिसनाथेन प्रत्यक्षेण विमृश्यताम् ।। ८२५॥ अर्थ-हाँ! यदि तम्हारे हदय में यह जानने की इच्छा है कि अमर्तिक आत्मा का मर्त कर्मों से बन्ध स्वानुभव सहित प्रत्यक्ष प्रमाण से विचार करो ।
भावार्थ ८२१ से ८२४ तक का-आचार्य उत्तर देते हैं कि अमूर्त का मूर्त से बंध है तो जरूर आश्चर्यजनक पर भाई वस्तु स्वभाव में किसी का चारा नहीं। जो चीज प्रत्यक्ष है उसमें दलील का अवकाश नहीं है। स्वभाव में तर्क काम नहीं करता। कोई किसी को लि अगिर गरमनयों है तो उसका उत्तर यही मिलेगा कि छू कर देख लो, है कि नहीं। इसी प्रकार आत्मा कर्म से बद्ध है यह तो प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध है। अब उसमें ये प्रश्न कि वह बंध कैसे हुआ व्यर्थ प्रतीत होता है। हाँ आगे ग्रन्थकार एक बहुत ईमानदारी की बात कहते हैं कि वह बंध है या नहीं यह हम तुझे प्रत्यक्ष दिखला सकते हैं। तेरे अनुभव में आ सकता है। यदि चाहो तो ऐसा हो सकता है। इस पर शिष्य सन्तुष्ट होकर कहता है कि अच्छा ऐसा ही करिये। उनका बंध ऐसा सिद्ध कीजिए जो मेरे अनुभव में प्रत्यक्ष आ जाय। सो अब ग्रन्धकार अनुभव प्रत्यक्ष बंध की सिद्धि ८२५ से८३८ तक करते हैं।
आत्मा और कर्म के बंध की सिद्धि ८२५ से ८३८ तक अरत्यमूर्त मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च वस्तुतः ।
मद्यादिना समूतेन स्यात्तत्याकानुसारि तत् ॥ ८२५ ॥ अर्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान पदार्थपने से अमूर्त है किन्तु मद्यादिक मूर्तिक पदार्थ के निमित्त से वह उसके पाक । के अनुसार मूच्छित हो जाता है अर्थात् मद्य के निमित्त से उन ज्ञानों का परिणमन बदल जाता है। विकारी हो जाता
भावार्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही आत्मा के ज्ञान गुण की पर्याय रूप हैं। आत्मा अमूर्त है। इसलिये ये दोनों भी अमूर्त ही हैं, परन्तु जब कोई मनुष्य मदिरा भंग आदि मादक पदार्थों का पान कर लेता है तो उस आत्मा का ज्ञान गण विकार रूप परिणमन कर जाता है। यह विकार उस मूर्त मदिरा के निमित्त से होता है। इस कथन से अमृत आत्मा का मूर्त कर्म से किस प्रकार बन्ध है इस प्रश्न का अच्छी तरह निराकरण हो जाता है। आगे इसी को स्पष्ट करते
नासिद्धं तत्तथा योगाद यथा दप्टोपलब्धित:
बिना मद्यादिना थरमात् तद्विशिष्टं न तद् द्वयम् ।। ८२६ ॥ अर्थ-उस ( मतिश्रुतज्ञान)का उस(मद्यादि)के योग से वैसा विकारी हो जाना असिद्ध नहीं है किन्तु प्रत्यक्ष वैसा दीखता है। तथा मद्यादि के बिना बह दोनों ज्ञान मद्यादि युक्त (विकारी) नहीं होते । इससे यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि अमूर्त । आत्मा का मूर्त कर्म के साथ बंध अर्थात् निमित्त-नैमित्तिक संबन्ध है।
अपि चोपचारतो मूर्त तूक्तं ज्ञानद्वयं हि यत् ।
न तत्तत्त्वाराथा ज्ञान वस्तुसीम्जोऽनतिकमात् ॥ ८२७॥
आगम में मतिश्रत दोनों ज्ञान मर्त कहे गये हैं वह मर्तपना उपचार से है।तत्व दष्टि ( पदार्थ दष्टि) से नहीं है। तत्त्व दृष्टि से तो ज्ञान अमूर्त ही है क्योंकि वस्तु की सीमा का उल्लंघन कभी नहीं हो सकत्ता अर्थात् जो मूर्त पदार्थ है वह सदा भूर्त ही रहता है जो अमूर्त है वह सदा अमूर्त ही रहता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान आत्मा के गुण हैं वे वास्तव में अमूर्त ही हैं। केवल उपचार से मूर्त कहलाते हैं। क्यों ? इसकी चर्चा पहले ७८६ में कर आये हैं तथा अगले श्लोक में की है।
जासिद्धश्चोपचारोऽयं मूर्त यत्तत्त्वतोऽपि च । वैचित्र्याद्वस्तुशक्तीनां स्वत: स्वस्यापराधतः ॥ ८२८ ॥