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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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शंका चालू-भाव यह है कि कोई भी वस्तु किसी दूसरी वस्तु की लेशमात्र भी नहीं लगती है क्योंकि द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से वस्तु अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करती है। अर्थात् वस्तु त्रिकाल अपने चतुष्टय में रहती हुई कार्य करती है। पर के चतुष्टय को छूती भी नहीं है।
व्याप्यव्यापकभावस्य स्यादभावेऽपिमूर्तिमत् ।
द्रव्यं हेतुर्विभावस्य तत्किं तत्रापि नापरम् ॥ ८६६ || अर्थ-जब उपर्युक्त अनुसार वस्तु स्वभाव है तथा जीव पदगल में कर्ता-कर्म भाव का सम्बन्ध भी नहीं है फिर मुर्तिक द्रव्य ( अर्थात द्रव्य कर्म का उदय) जीव के विभावका कारण कैसे हो जाता है? तथा उस विभाव में भी वह कर्म ही कारण क्यों हैं उसी स्थल पर रहने वाली धर्मादि दूसरा द्रव्य क्यों कारण नहीं है ?
भावार्थ-शिष्य पूछता है कि जब दो द्रव्यों में अत्यन्ताभाव है और सब अपन-अपने चतुष्टय में कार्य करते हैं, पर को छूते भी नहीं हैं तो एक द्रव्य के लिये दूसरा द्रव्य कारण कैसे हो जाता है? आप जो विभाव परिणमन में पुद्गल को कारण कहते हैं तो जीव और पुद्गल का तो कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं हैं। वे एक-दूसरे के भाव के कर्ता नहीं हैं। जीव चेतन है, पुद्गल जड़ है। जड़ चेतन के भाव को उत्पन्न कर भी कैसे सकता है ? अतः कर्म का उदय जीव के भाव को कैसे बनाता है? और यदि कारण है ही तो फिर वह कर्म का उदय ही क्यों कारण है ? यदि कहो कि आत्मा और कर्म एक स्थल पर रहते हैं इसलिये वह कारण है तो एक स्थल पर तो छहों द्रव्य रहते हैं धर्मादिक कोई भी कारण हो सकता है। यदि इसके उत्तर में यह कहो कि आत्मा का पुद्गल के साथ सन्निकर्ष विशिष्ट सम्बन्ध है ( स्पष्ट है) इसलिये पुद्गल ही कारण हो सकता है धर्मादिक नहीं, तो महाराज सन्निकर्ष संबंध तो जीव का उसी स्थल पर रहने वाली विस्त्रसोपचय कर्म वर्गणा विशेष के साथ भी हैं। वह भी कारण हो जावेंगी पर उन्हें भी आप कारण नहीं मानते, सोई कहता है।
वैभातिकस्य भावरय हेतुः स्यात् सन्निकर्षतः ।
सनस्थोऽप्यपरों हेतर्न स्यातिचंता बतेति चेत ॥८६७॥ शंका चालू-यदि यह कहो कि वह मूर्तिक कर्म उस वैभाविक भाव का कारण सन्निकर्ष विशिष्ट सम्बन्ध के कारण से है धर्मादि नहीं तो खेद है कि वहाँ ही ठहरा हुआ दूसरा मूर्त द्रव्य ( विस्वसोपचय ) क्यों कारण नहीं होती हैं क्योंकि वे भी तो सन्निकर्ष सम्बन्ध विशिष्ट उसी स्थल पर रहती है। अतः महाराज बैभाविकी शक्ति के विभाव परिणमन में अत्यन्त भिन्न पड़ा हुआ वह पुद्गल कर्म ( का उदय ) कैसे कारण हो जाता है। यह मेरी समझ में नहीं आया । कृपया समझाइये।
भावार्थ ८६२ से ८६७ तक-शिष्य कहता है कि आप मुझे पहले नं.८९ तथा १७८ में यह बताकर आये हैं कि वस्तु जैसे स्वत: सिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमन शील भी है तथा स्वभाव वा विभाव रूप स्वयं अपनी योग्यता से परिणामन करती है। एक द्रव्य के चतुष्टय का दूसरे द्रव्य के चतुष्टय से कुछ सम्बन्ध नहीं है। अब आप कहते हैं कि जब आत्मा विभाव रूप परिणमन करता है तो द्रव्य कर्म का उदय उसमें निमित्त होता है। मैं पूछता हूँ कि वह कैसे निमित्त हो जाता है तथा यदि निमित्त होता ही है तो निमित्त तो छ: द्रव्य में से कोई भी हो सकता है। द्रव्य कर्म ही क्यों निमित्त है। यदि कहो कि और द्रव्य तो निमित्त नहीं केवल पुद्गल कर्म निमित्त है क्योंकि आत्मा से स्पृष्ट है और सन्निकर्ष
नोट-सूत्र में अपरः शब्द का अर्थ विस्त्रसोपचय है। विस्वसोपचय उन्हें कहते हैं कि जो पुद्गल परमाणु (कार्माण स्कन्ध) कर्मरूप परिणत तो नहीं हुए हों किन्तु आत्मा से स्पृष्ट हों और कर्मरूप परिणत होने के लिये सन्मुख हों। इन पुद्गल परमाणुओं की सत्रिकर्षरूप अवस्था है। जिस समय आन्या रागद्वेषादि कषाय भावों को धारण करता है उसी समय उसी स्थान में ठहरी हुई अन्य कार्मण वर्गणायें अथवा ये विस्वसोपचय संज्ञा धारण करने वाले परमाणु झट कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं और उनकी कर्म संज्ञा हो जाती है। उससे पहले-पहले कार्मण (कर्म होने के योग्य) संज्ञा है। ये विस्वसोपचय आत्मा से बंधे हुये कर्मों से भी अनन्त गुणे हैं और जीव राशि से भी अनन्त गुणे हैं। क्योंकि पहले तो आत्मा के साथ बंधे हुए कर्म परमाणु ही अनन्तानन्त है। उन कर्म रूप परमाणुओं में से प्रत्येक परमाणु के साथ अनन्तानन्त सूक्ष्म परमाणु (विस्त्रसोपचय) लगे हुए हैं।