________________
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-सर्वपदार्थस्थिता का अर्थ यह नहीं है कि सब में ठहरी हुई या सब पदार्थों की समुदायात्मक एक सत्ता किन्तु इसका अर्थ स्वयं ग्रंथकार ने आगे श्लोक २६५ में किया है "सर्वार्थसार्थसंस्पर्शि" अर्थात् पदार्थ समूह को छूनेवाली, क्योंकि सत् ३ की अपेक्षा तो सभी समान हैं। सामान्य धर्म से पदार्थ में भेद नहीं होता। सबके सादृश्यता की सूचक है न कि सबके एक अस्तित्व की।
एकस्यास्तु विपक्षः ससायाः स्यादढोानेकत्वम् ।
स्यादप्यनन्तपर्ययप्रतिपक्षरत्तेकपर्ययत्वं स्यात् ॥२२॥ अर्थ-एका सत्ता ( महासत्ता) का विपक्ष अनेका ( अवान्तर-सत्ता) है। अनन्तपर्याया (महास एकपर्याया (अवान्तर-सत्ता) है।
भावार्थ-सत्ता-असत्ता विशेषण तो दोनों के लिये प्रयुक्त हो जाते हैं अर्थात् महासत्ता को सत्ता भी कहते हैं और असत्ता भी कहते हैं। उसी प्रकार अवान्तर सत्ता को सत्ता भी कहते हैं असत्ता भी कहते हैं, किन्तु शेष विशेषण जो जिसका वह उसका ही रहेगा!ने आपम में अदले-बदले नहीं जाते हैं।
महासत्ता को नानारूपा ( सविश्वरूपा), सर्वपदार्थस्थिता, ध्रौव्योत्पादव्ययात्मिका (विलक्षणा), एका, अनन्तपर्याया कहते हैं।
अवान्तर सत्ता को एकरूपा, एकपदार्थस्थिता, अत्रिलक्षणा, अनेका, एकपर्याया कहते हैं।
इनमें महासत्ता (सामान्य) द्रव्यार्थिक नय का विषय है और अवान्तर सत्ता (विशेष-भेद ) पर्यायार्थिक नय का विषय है। वस्तु में श्रुतज्ञान की अपेक्षा दो अंश हैं और उन दोनों अंशों को ये दो नय दिखलाते हैं। वास्तव में वस्तु तो प्रमाणात्मक है यही सापेक्षता से प्रयोजन है और इसीलिये सापेक्षनय सम्यक है, निर्पेक्ष मिथ्या है। को सामान्य कहते हैं, भेद दृष्टि से उसी को विशेष कहते हैं । प्रमाण दृष्टि से वही भेदाभेदात्मक है।महासत्ता अवान्तर सत्ता को विशेष स्पष्ट समझने के लिये आगे निम्नलिखित श्लोकों का मनन करें-नं.२६४ से ३०८ तक तथा ७५६ से ७५९ तक। प्रमाण-श्लोक १५ से २२ तक श्री पंचास्तिकाय गाथा ८, ९ के आधार से रचे गये हैं।
श्लोक १५ से २२ तक का सार पदार्थों में स्वरूप का अवबोधक अन्वय रूप जो धर्म पाया जाता है उसे सत्ता कहते हैं। यह अपने उत्पाद, व्यय और धौव्य स्वभाव के द्वारा नाना पदार्थों में व्याप्त होकर रहती है इसलिये नानारूपा है। ऐसा एक भी पदार्थ नहीं जो सत् स्वरूपन हो, इसलिये सर्वपदार्थस्थिता है। उत्पाद व्यय और धौव्य स्वभाव होने से विलक्षणात्मिका है। सब पदार्थों में अन्वय रूप से पाई जाती है इसलिये एका है और अनन्त पर्यायों का आधार है इसलिये अनन्तपर्यायात्मिका है। यद्यपि सत्ता का स्वरूप उक्त प्रकार का है तो भी यह केवल अन्वय रूप से ही विचार करने पर प्राप्त होता है। व्यतिरेक रूप से विचार करने पर तो इसकी स्थिति ठीक इससे उल्टी हो जाती है। इसी से इसे उक्त कथन के प्रतिपक्ष वाली भी बतलाया गया है। आशय यह है कि वस्तु न सामान्यात्मक ही है और न विशेषात्मक ही है किन्तु उभयात्मक है। जिसकी सिद्धि विवक्षाभेद से होती है। नय पक्ष यह विवक्षा भेद का ही पर्यायवाची है। इससे सामान्य विशेषरूप से उभयात्मक वस्त की सिद्धि होती है क्योंकि वस्तु न केवल सामान्यात्मक ही है और न केवल विशेषात्मकही। इसी से सत्ता को जहाँ सर्वपदार्थस्थिता आदि रूपा कहा है वहाँ उसे एकपदार्थस्थिता आदि रूपा भी बतलाया है।
प्रत्येक सत् सामान्य विशेषात्मक है उसमें किसी प्रकार भेद न करके जिस किसी द्रव्य को सामने रख कर सत् मात्र देखना महासत्ता है और उसे गुणपर्याय वाला, उत्पाद, व्यय, ध्रुव आदि भेदात्मक रूप देखना अवान्तर सत्ता है। अब कमाल यह है कि जब तक आप उसे सत् रूप से देख रहे थे तो यह आपको सारा का सारा सत् ही दीखता था और जब आप उसे जीव रूप से देखने लगे तो सारा का सारा जीव रूपदीखने लगा। इसी का नाम दो नय या सापेक्षता है। प्रदेश वही के वही हैं, स्वरूप वही का वही है। चीज एक की एक है पर वह स्वभाव से इस प्रकार की बनी हुई