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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
शंका अप्राप्याह कुदृष्टियदि नयपक्षी विवक्षितौ भवतः।
का नः क्षतिर्भताभन्यतरेणे सत्त्वसंसिद्धिः ॥१८॥ अर्थ- इस पर भी मिध्यादृष्टि (अन्यमति-शंकाकार) कहता है कि यदि आपके दोनों नयपक्ष विवक्षित हैं तो रहें हमारी कुछ हानि नहीं क्योंकि इनमें से किसी एक से सत्त्व ( सत्ता-वस्तु-पदार्थ) की सिद्धि हो जायगी।
भावार्थ-शंकाकार कहता है कि सामान्य सत्ता और विशेष सत्ता तो आप भी दोनों मानते हो फिर क्या झगड़ा। हमारा तो किसी एक से ही काम चल जायगा अर्थात् वह वस्तु को सामान्यविशेषात्मक अखण्ड प्रदेशी नहीं मानकर वस्तु को किसी एक रूप मानना चाहता है। अनेकान्तरूप नहीं-एकान्तरूप मानना चाहता है।
समाधान-१९ से २२ तक तन्न यतो द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयात्मक वस्तु।
अन्यतरस्य विलोपे शेषस्यापीह लोप इति दोषः ॥१९॥ अर्थ- ऐसा नहीं है अर्थात् तुम किसी एक से वस्तु की सिद्धि नहीं कर सकते क्योंकि वस्तु द्रव्य पर्याय उभय रूप है या द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक रूप उभय नय का विषय है (सामान्यविशेषात्मक है) इनमें से किसी एक का लोप करने पर दूसरे का भी लोप हो जायगा, यह दोष आयेगा (शून्य हो जायेगा)।
भावार्थ- भाई यदि तू एक को छोड़कर दूसरा मानना चाहता है तो यह कैसे बने। चीज तो एक ही है। अत: इस प्रकार तो शून्य का प्रसंग आयेगा। वस्तु ही खत्म हो जायगी।
नोट-निर्पेक्ष वस्तु का खण्डन करके अब सापेक्ष वस्तु का स्वरूप कैसा है यह श्लोक २०-२१-२२ द्वारा उसे समझाते हैं।
प्रतिपक्षमसत्ता स्यात्सत्तायास्तद्यथा तथा चान्यत् ।
नानारूपत्वं किल प्रतिपक्ष चैकरूपतायास्तु ॥२०॥ आधे का अर्थ-इसलिये जैसा सत्ता का प्रतिपक्ष असता है उसी प्रकार दूसरा भी है अर्थात् असत्ता का प्रतिपक्ष सत्ता है।
आधेका भावार्थ-जिस समय महासत्ता सत्ता रूप से विवक्षित होती है उस समय अवान्तर सत्ता असत्ता हो जाती है और जिस समय अवान्तर सत्ता सत्ता रूप से विवक्षित होती है उस समय महासत्ताअसत्ता हो जाती है। क्योंकि सामान्य या विशेष जिस स्वरूप को वक्ता को कहना होता है उसको वह सत्ता रूप से विवेचन करता है। दूसरी गौण हो जाती है। असत्ता का अर्थ यहां अ-सत्ता अर्थात् अभाव नहीं है किन्त गौण है"अर्पितानर्पितसिद्धेः"।
दूसरे आधे का अर्थ-किन्तु एकरूपता का प्रतिपक्ष तो निश्चय से नाना रूपता है।
भावार्थ-एकरूपता अवान्तर सत्ता को कहते हैं और नाना रूपता महासत्ता को कहते हैं। यह ध्यान रहे कि एकरूपता महासत्ता को और नानारूपता अवान्तर सत्ता को नहीं कहते। इसकी सूचना के लिये 'तु' शब्द का प्रयोग किया है। ऊपर की पंक्ति महासत्ता की ओर से है। नीचे की पंक्ति अवान्तर सत्ता की ओर से है। आगे श्लोक २१२२ फिर महासत्ता की ओर से है। देखिए श्री पंचास्तिकाय गाथा ८ मूल तथा टीका नानारूपता को सविश्वरूपा भी कहते हैं।
एकपदार्थस्थितिरिह सर्वपदार्थस्थितेर्विपक्षत्वम् ।
धौव्योत्पादविजारौ स्त्रिलक्षणायारित्रलक्षणाभावः 11२१॥ अर्थ- यहाँ सर्व पदार्थ स्थिति(महासत्ता)का विपक्षपना एक पदार्थ स्थिति (अवान्तरसत्ता)है और धौव्य उत्पाद व्यय द्वारा विलक्षणा (महासत्ता) का प्रतिपक्ष त्रिलक्षणाभाव ( अर्थात् केवल धौव्य, केवल उत्पाद या केवल व्ययअविलक्षणा-अवान्तर सत्ता) है।