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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भिन्न हों, उनमें से विशेष के प्रदेश छोड़कर केवल सामान्य के प्रदेशों की ग्राहक हो, ऐसा नहीं है किन्तु सप्रतिपक्षा है ( अर्थात् विशेष सहित सामान्य है)। वह ग्रतिपक्षपना अपने प्रतिपक्ष के साथ है ( अर्थात् सामान्य का प्रतिपक्षपना अपने विशेष के साथ है) दूसरे पदार्थ के साथ नहीं है ( अर्थात् चेतन का प्रतिपक्षपना अवेतन के साथ नहीं है। घट का प्रतिपक्षपना पट के साथ नहीं है)।
भावार्थ-पर्वोक्त श्लोक नं.८ में जिस सत्ता को तत्व वस्तु का लक्षण कहा गया है वह केवल सामान्य सत्ता नहीं है किन्तु अपनी प्रतिपक्ष विशेष सत्ता सहित है क्योंकि वस्तु सामान्यविशेषान्मना है। सामान रहे कि यहाँ पर एक ही पदार्थ की सामान्य सत्ता अपनी विशेष सत्ता के साथ सापेक्ष है । दूसरे पदार्थ की सत्ता से कुछ प्रयोजन नहीं है।
यहाँ यह विषक्षा नहीं है कि विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों की समुदायात्मक सत्ता को महासत्ता(सामान्य) सत्ता कहा गया हो और प्रत्येक पदार्थ की सत्ता को अवान्तर ( विशेष) सत्ता कहा गया हो। ऐसा अर्थ करने से सम्पर्ण ग्रंथ का अर्थ मिथ्या हो जायगा । यहाँ किसी एक अखण्ड पदार्थ के सामान्य धर्म को सत्ता और उसी के विशेष धर्म को प्रतिपक्षपना कहा है। इसी बात को अब आगे स्वयं ग्रंथकार शंका समाधान पूर्वक श्लोक नं. २२ तक सिद्ध करेंगे।
शंका अचाहैवं कश्चित् सत्ता या सा निरंकुशा भवतु ।
परपक्षे निरपेक्षा स्वात्मनि पक्षेऽवलम्बिनि यस्मात् ॥ १६ ॥ अर्थ-यहां कोई (शंकाकार या अन्यमती) इस प्रकार कहता है कि जो सत्ता तत्त्व का लक्षण पूर्वोक्त श्लोक नं.८ में कहा गया है वह सत्ता निरंकुश, निर्पक्ष, स्वतन्त्र होवे ( अर्थात् उन प्रदेशों में केवल सामान्य का स्वरूप होवे विशेष का स्वरूप उसमें न होवे ) क्योंकि वह परपक्ष में ( विशेष स्वरूप में)निर्पेक्ष होती हुई ( विशेष स्वरूप को धारण न करती हुई) अपने पक्ष में रहने वाली होगी (केवल सामान्य स्वरूप की धारक होगी।) ___ भावार्थ- शंकाकार सामान्यविशेषात्मक वस्तु में सामान्य सत्ता (स्वरूप) के प्रदेश भिन्न और विशेष सत्ता (स्वरूप) के प्रदेश भिन्न स्वीकार करके प्रश्न कर रहा है कि जब दोनों के प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं तो फिर आपस में सपक्षपना कैसा ? निर्पेक्षपना (निरंकुश) होना चाहिये । दोनों अपने-अपने स्वरूप और अपने-अपने प्रदेशों में हैं। शंकाकार की मान्यता अनुसार विशेष निर्पेक्ष सामान्य और सामान्य निर्पेक्ष विशेष है जो गधे के सींगवत् ही ठहरता है। ऐसा कोई तत्त्व ही नहीं। जगत के सब पदार्थ तो सामान्य विशेषात्मक हैं। जो सत् सामान्य है वही तो सत् विशेष जीव है।
समाधान तन्न यतो हि विपक्षः कश्चित् सत्वस्य वा सपक्षोऽपि ।
द्वावपि जयपक्षौ तौ मिथो विपक्षौ विवक्षितापेक्षात् ॥ १७ ॥ अर्थ- ऐसा नहीं है अर्थात् सामान्य सत्ता स्वतंत्र नहीं है क्योंकि सत्ता का कोई सपक्ष ( सामान्य स्वरूप) और कोई विपक्ष (विशेष स्वरूप) भी अवश्य है। वे दोनों नय पक्ष हैं ( अर्थात् आपस में एकमेक हैं। जिस दृष्टि से देखो सत् उसी रूप दीखता है, सामान्य दृष्टिवाले को सम्पूर्ण सत् सामान्य दीखता है और विशेष दृष्टिवाले को सारा सत् विशेष रूप दीखता है) और विवक्षित (जिसको वक्ता कहना चाहता हो) की अपेक्षा से दोनों आपस में विपक्ष हैं। सामान्य की विवक्षा में विशेष विपक्ष है अर्थात् गौण रूप से वस्तु में खड़ा रहता है और विशेष की विवक्षा में सामान्य विपक्ष है अर्थात् गौण रूप से वस्तु में खड़ा रहता है।) ___ भावार्थ-हर एक तत्त्व (वस्तु-सत्ता) सामान्यविशेषात्मक है इसलिये उसमें दोनों धर्म युगपत रहते हैं। परस्पर सापेक्ष हैं। वक्ता को जिससे प्रयोजन हो उसको सपक्ष बना लेता है और दूसरे को विपक्ष बना लेता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि वे स्वतंत्र (भिन्न-भिन्न प्रदेशवाले) हैं। वस्तु प्रमाण रूप हैं। दोनों पक्ष एक-एक नय के विषय हैं और सापेक्ष नय सम्यक है। निर्पेक्ष मिथ्या है।