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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
है कि दोनों रूप दृष्टिगत होती है। सारी की सारी को चाहे जिस रूप से देख लो। इसे देखने का नाम ही विवक्षित मुख्य है और दूसरे रूप न देखने का नाम ही अविवक्षित या गौण है।
हमने एक बार एक चित्र देखा था वह एक ओर खड़े होकर सारा का सारा म. गांधी का चित्र दीखता था, दूसरी ओर खड़े होकर देखने से सारा का सारा वही चित्र पं. जवाहर लाल नेहरू का दीखता था। शायद आपने भी दीवाली वगैरह पर किसी शहर में किसी दुकान पर देखा हो। वह सामान्य विशेष को देखने का प्रत्यक्ष अच्छा दृष्टांत था। ___ अखण्ड एक सत् को सामान वाहते है और एक अतिरिक्ष विराना भी आगे भेदात्मक विचार-विमर्श है सब विशेष है। जैसे जीव यह विचार करना विशेष है।असंख्यात् प्रदेशी, अनन्त गुणों का पिण्ड, मनुष्य पर्याय रूप(शरीर नहीं आत्मा), यह सब विशेष सत् है । यहाँ तक एक प्रदेश या एक प्रदेशकी कोण में से एक कोण एक अविभाग प्रतिच्छेद एक समय की एक पर्याय आदि सब विशेष भेद है। प्रदेश सबके बही हैं। स्वरूप सबका वही है। केवल अपेक्षाकृत भेद है। इसी को विशेष स्पष्ट करने के लिये आचार्यों ने द्रव्य से सामान्य विशेष, क्षेत्र से सामान्य विशेष,
ल से सामान्य विशेष और भाव से सामान्य विशेष समझाया है। इनसे यह पता चल जाता है कि अखण्ड सत में आखिर कहाँ तक भेद कल्पना संभव है। जैसे प्रत्येक द्रव्य से, सामान्य विशेष यह है कि जैसे जीव में सत् यह सामान्य, जीव सत् यह द्रव्य से विशेष। देश यह क्षेत्र से सामान्य और असंख्यात प्रदेश यह क्षेत्र से विशेष। पर्याय यह काल से सामान्य और मनुष्य पर्याय यह काल से विशेष गुण यह भाव से सामान्य, ज्ञान गुण ये भाव से विशेष। अब एक और ध्यान रखिये द्रव्य में जिसको सत् कहा वह, क्षेत्र में जिसको देश कहा वह, काल में जिसको पर्याय कहा वह, भाव में जिसको गुण कहा बह-इनका वाच्य अर्थ एक ही अखण्ड सत् सामान्य है। चारों शब्दों का सत् अर्थ है और विशेष में चीज़ तो वही है, प्रदेश भी वही है, स्वरूप भी वही है केवल उसे देखने की दृष्टियां भिन्न-भिन्न हैं। क्या कहें वस्तु ही कुछ स्वयं सिद्ध ऐसी बनी हुई है। यही सत् और उसकी सपक्षता का भाव है जो श्लोक १५ से २२ तक निरूपित है। क्या कहें जहां तक शब्द की ओर हमारी सामर्थ्य थी वहाँ तक समझाने का प्रयत्न किया, विशेष तो गुरुगम अधीन है। गरु कपा बिना कभी कोई वस्त को नहीं पाता। सम्यक्त्व भी देशनालब्धिबिना सदगरू प्रसाद के नहीं होता। विशेष स्पष्टता तो साक्षात् गुरु के सामने ही बैठकर समझी जा सकती है। आचार्यों ने छोटे-छोटे सूत्रों में इतना मर्म भर दिया है कि उन्हें हिन्दी के हजारों पन्नों में भी स्पष्ट नहीं किया जा सकता। प्रमाण के लिये देखिये २६३ से ३०८ तक ।
नोट-इस प्रकार वस्तु को सामान्य विशेषात्मक अखण्ड सिद्ध करके अब उस वस्तु के विस्तार क्रम(चौड़ाई का) वर्णन करते हैं। द्रव्य के विष्कम्भ क्रम (चौड़ाई) का वर्णन २३ से ३७ तक।
शंका एकस्मिन्निह वस्तुन्यनादिनिधने च निर्विकल्ये च ।
भेदनिटानं किं तोनैलज्जृम्भते वचस्स्विति चेत् ॥ २३॥ अर्थ-वस्तु एक है। वह अनादि है। अनन्त है और निर्विकल्प (अखण्ड) है ऐसी वस्तु में भेद का क्या कारण है जिस कारण से कि आप यह वचन कहते हैं कि सत् सपक्ष सहित है भेद सहित है (आपने पूर्व श्लोक नं.८ में यह प्रतिज्ञा की थी कि वस्तु अनादि अनन्त निर्विकल्प एक है। फिर अब आप उसका सपक्ष बतलाकर भेद क्यों कर रहे हैं और बिना भेद के सपक्ष हो ही नहीं सकता। यदि भेद है तो आपकी निर्विकल्प अखण्डित की प्रतिज्ञा मिथ्या है। यदि अभेद है तो यह सपक्षपना मिथ्या है? ) ___ भावार्थ-यहाँ पर यह प्रश्न है कि जब वस्तु अखण्ड द्रव्य है, तब सामान्य का प्रतिपक्ष विशेष, एक का प्रतिपक्ष अनेक, उत्पाद, व्यय, धौव्य का प्रतिपक्ष प्रत्येक एक लक्षण, अनन्त पर्याय का प्रतिपक्ष एक पर्याय आदि जो बह सी बातें कही गई हैं वे ऐसी हैं जो कि द्रव्य में खण्डपने को सिद्ध करती हैं। इसीलिये वह कौनसा कारण है जिससे द्रव्य में सामान्य, विशेष, एक, अनेक, उत्पाद, व्यय, धौव्य आदि भेद सिद्ध हों?