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प्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
जीव का सामान्य स्वरूप ७९८ से ८०० तक अस्ति जीतः स्वत: सिद्धोऽनानन्तोऽप्यमूर्तिमान् । ज्ञानाद्यनन्तधर्मादिरूढ़त्वाद्
द्रव्यमव्ययम् ॥ ७९८॥ अर्थ-जीव स्वतःसिद्ध, अनादि अनन्त और अमूर्तिक है तथा ज्ञानादिक अनन्त धर्मों से युक्त होने के कारण अविनाशी द्रव्य है।
भावार्थ-स्थाः सिद्ध,अनादि अनन्त की सिद्धिती पहले ८ से १४ तक कर आये हैं। अमूर्तिकपने की सिद्धि ७७५ से ७८९ तक अभी की है। ज्ञानादिक अनन्त विशेष गुणों की सिद्धि आगे १७०८ से करेंगे।
साधारणगुणोपेतोऽप्यसाधारणधर्मभाक
विश्वरूपोऽप्यतिश्वस्थ: सर्वोपेक्षोऽपि सर्ववित् ॥ ७९९ ॥ अर्थ-वह जीव साधारण गुणों से युक्त होता हुआ भी असाधारण धर्मों को धारण करने वाला है अर्थात् जीव में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के गुण हैं । ज्ञान की अपेक्षा से विश्वरूप होकर भी प्रदेशों की अपेक्षा विश्वरूप नहीं । है। अर्थात् विश्व के पदार्थों में फैला हुआ नहीं है किन्तु अपने में स्थित है। सबसे उपेक्षा रखने वाला होने पर भी सब को जानने वाला है अर्थात् किसी से कोई सम्बन्ध नहीं रखता फिर भी उन्हें जान जरूर लेता है।
असंरव्यातप्रदेशोऽपि स्यादरवण्डप्रटेशवान ।
सर्वद्रव्यातिरिक्तोऽपि तन्मध्ये संस्थितोऽपि च ।। ८00॥ अर्थ-वही जीव असंख्यात प्रदेशी होकर भी अखण्डप्रदेशवाला है। सब द्रव्यों से भिन्न होता हुआ भी उनके मथ्य में ठहरा हुआ है।
भावार्थ ७९९-८००- ये विरोधाभास रूप अलंकार से युक्त पद्य हैं जहाँ परस्पर दो धर्म विरोधी तो मालूम पड़ते हों पर वास्तव में विरोधी न हों। जैसे जो साधारणगुणों वाला है वह असाधारण गुणों वाला कैसे हो सकता है ? विरोधी शब्द दीखता हुआ भी जीव में अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व आदि अनन्त साधारण गुण भी है और ज्ञान, दर्शन, सम्यकत्व, चारित्र सुखादि अनन्त असाधारण गुण भी हैं ( २)विश्वरूप और अविश्वरूप दोनों विरोधी शब्द दीखते हए भी जीव ज्ञेयाकार की अपेक्षा विश्वरूप है और अपने प्रदेशों में ही स्थित रहने के कारण अविश्वरूप है(३) जो सब से उपेक्षा रखने वाला होगा अर्थात् कुछ सम्बन्धन रखने वाला होगा वह सब के साथ शेयज्ञायक सम्बन्ध कैसे रखेगा किन्तु जीव पर के स्वामित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि की अपेक्षा सबसे उपेक्षित है किन्तु जानने में सब की अपेक्षा रखता है (४) जो असंख्यात्प्रदेशी होगा वह एकप्रदेशी कैसे होगा यह शब्द से विरोध दीखता है किन्तु जीव प्रदेशों से असंख्यात प्रदेशी होता हुआ भी अखण्डदेशी है। (५)जो सब द्रव्यों से भिन्न होगा वह उनमें ही कैसे रहेगा यह शब्द से विरोध दीखते हुए भी जीव स्वरूप की अपेक्षा सब से भिन्न है किन्तु आकाश क्षेत्र की अपेक्षा छहों द्रव्यों के बीच में ठहरा हुआ है। यह काव्य की सुन्दरतापूर्वक जीव के सामान्य स्वरूप का निरूपण है। एक खास बात यह ध्यान रखने की है कि उपर्युक्त तीन पद्यों में सामान्य जीव का निरूपण है। इस निरूपण अपेक्षा संसारी सिद्ध में अन्तर नहीं है। यह जीव के त्रिकाली स्वरूप का निरूपण है जो अनादि अनन्त एक रूप है। सबसे पहले इस सामान्य स्वरूप द्वारा ही जीव वस्तु की सिद्धि की जाती है और इसी के द्वारा जीव को पकड़ा जाता है। पर्याय की विशेषता बाद की बात है।
अथ शुद्धनयादेशाच्छुद्धश्चैकतिधोऽपि यः ।
स्याद् द्विधा सोऽपि पर्यायान्मुक्तामुक्तपमेदतः ॥ ८०१ ॥ अर्थ-जो जीव उपर्युक्त कथनानुसार शुद्ध नय के आदेश से शुद्ध और एक रूप है वह ही जीव पर्याय से मुक्त और बद्ध के भेद से दो प्रकार का है।
भावार्थ- (A) औदयिक, औपशमिक, क्षायिक,क्षायोपशमिक भावों को( पर्यायों के परिणमन को) गौण करके यदि त्रिकाली सामान्य स्वभाव की दृष्टि से देखा जाये तो सब जीव शुद्ध हैं और एक रूप हैं। शुद्ध शब्द का एक तो यह अर्थ है कि औदयिक भावों को अशुद्ध कहते हैं और क्षायिक भावों को शुद्ध कहते हैं औपशमिक, क्षायोपशमिक