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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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प्रमाण-सत् की तीसरी विशेषता का निरूपण पूरा हुआ। यह श्री प्रवचनसार गा. १२८ पर से लिया गया है।
(घ) क्रिया और भाव की विशेषता ७९२ से ७९५ तक ४ क्रियाभावविशेषोऽरिस्त तेषामन्तातो यतः ।
भावक्रियाद्वयोपेताः केचिदाबगता: परे ॥ ७९२ ।। अर्थ-उन द्रव्यों में अर्थ अनुसार किया और भाव से भी विशेषता है क्योंकि कोई भाव और किया दोनों से युक्त हैं और कोई भाववान् है।
भाववन्तौ क्रियावन्तौ द्वावेतौ जीतपुदगलौ ।
तौ च शेषचतुष्कं च बढेते भावसंस्कृताः ॥ ७९३ ॥ अर्थ-यह दो जीव और पुदगल भाववान् भी हैं और क्रियावान् भी हैं, और वे दोनों तथा शेष चार ये छ: भावयुक्त
तत्र क्रिया प्रदेशाला परिस्पन्दश्चलात्मकः ।
भावरतत्परिणामोऽस्ति धारावाोकवस्तुनि ॥ ७९ ॥ अर्थ-उनमें प्रदेशों का हलन-चलन रूप परिस्पन्द क्रिया है और एक वस्तु में धारावाही होने वाला वह परिणाम भाव है। अब दोनों की सिद्धि करते हैं
दोनों की सिद्धि रूप उपसंहार नासम्भवमिदं यरमादर्थाः परिणामिनोऽनिशम् ।
तत्र केरिया कदासिन्दा प्रदेशक : ७९५ ॥ अर्थ-ये दोनों बातें असम्भव नहीं है क्योंकि पदार्थ निरन्तर परिणमनशील हैं तथा उनमें कोई-कोई कभी-कभी प्रदेश परिस्पन्दात्मक भी हैं यह भी प्रत्यक्ष है। प्रमाण-सत् की चौथी विशेषता का निरूपण पूरा हुआ । यह श्री प्रवचन सार गा. १२९ पर से लिया गया है।
दूसरा अवान्तर अधिकार जीव और कर्म के अस्तित्त्व और उनके बन्ध का निरूपण ७९६ से ८१९ तक २४ भूमिका-पहली तीन पुस्तकों में सामान्य सत् का निरूपण ७६८ तक किया फिर ७६९ से ७९५ तक उस सत् के विशेष धर्मों को समझाया। इस प्रकार सामान्य विशेषात्मक द्रव्य (वस्तु) की सिद्धि की अर्थात् पहली तीन पुस्तकों में वस्तु के विशेष धर्मों को गौण करके सामान्य सत् धर्म का निरूपण किया था, यहाँ उस सत् धर्म को गौण करके विशेष धर्मों का निरूपण किया। अब उन छः विशेष सतों में से एक चेतन सत् को मुख्य करके उसका उपदेश प्रारम्भ करते हैं। यह ध्यान रहे कि जो सामान्य सत् था वहीं यह विशेष सत् जीव है। पहला सामान्य निरूपण तो सब इस पर लागू होता ही है पर अब विशेष धर्मों की मुख्यता से जीव का विशेष कथन करते हैं:
प्रतिज्ञा तद्यथा चाधिचिद्रव्यं देशनारभ्यते मया ।
युक्त्यागमानुभूतिभ्यः पूर्वाचार्यानतिक्रमात ॥ ७९६ ॥ अर्थ-युक्ति, आगम, अनुभव और पूर्व आचार्यों की परिपाटी के अनुसार अब चेतन द्रव्य का उपदेश मेरे द्वारा प्रारम्भ किया जाता है। वह इस प्रकार है:
प्रागुद्देश्य: स जीवोऽस्ति ततोऽजीवस्तत: कमात् ।
आस्त्रवाद्या यतस्तेषां जीवोऽधिष्ठानमन्वयात ॥ ७९७ ॥ अर्थ-पहले वह जीव कधन करने योग्य है। फिर अजीव । फिर क्रम से आस्त्रबादिक; क्योंकि उन आस्त्रबादिक काजीव अन्वयरूप से आधार है।यहाँ जीव-अजीव सामान्य द्रव्य के द्योतक हैं और आस्त्रवादि के द्योतक हैं। नौ पदार्थों में सामान्य जीव एक है वह विवक्षा यहाँ नहीं है। वह विवक्षा आगे ९५५-५६-५७ में है।
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