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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
ज्ञानसाधन है, सुख-दुःख साध्य हैं। जब ज्ञान मूर्त हुआ तो वे भी मूर्त हुये। जब सुख-दुःख मूर्त हुये तो सुख-दुःख तो आत्मा में होते हैं वह भी मूर्त हुआ। इस प्रकार केवल एक मूर्तिक पदार्थ ही जगत में सिद्ध होता है। अमूर्तिक पदार्थ कोई सिद्ध ही नहीं होता ऐसा वह कहना चाहता है। उसने फिर अमूर्त पदार्थ की सत्ता को उड़ाया है। उसके उत्तर में उसे समझाते हैं कि मूर्तिक तो ज्ञान को उपचार से बहा है। वाले सुखदुःख भी अमूर्त हैं और उन सुख-दुःखमय आत्मा भी अमूर्त है। इस प्रकार जैसे एक अमूर्तिक पदार्थ को सत्ता सिद्ध हुई, वैसे ही चार पदार्थ और भी अमूर्त हैं। इस प्रकार युक्ति आगम और अनुभव से यही निर्णय होता है कि एक पुद्गल पदार्थ तो मूर्त है। शेष अमूर्त हैं।
वह
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समाधान ७८७ से ७८८ तक
नैवं यतो रसाद्यर्थं ज्ञानं तन रसः स्वयम् ।
अर्थाज्ज्ञानममूर्त स्यान्मूर्त मूर्तीपचारत: ॥ ७८७ ॥
अर्थ - ऊपर जो शंका उठाई गई है वह ठीक नहीं है क्योंकि जो रसादि पदार्थ को विषय करने वाला क्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह स्वयं रसमय अर्थात् रसरूप नहीं हो जाता किन्तु पदार्थपने से वह ज्ञान ज्ञान ही रहता है और वह ज्ञान अमूर्त ही है। वह तो क्योंकि मूर्त कर्म के उदय में जुड़कर वैभाविक ( क्षायोपशमिक) दशा में है और वर्तमान में मूर्त पदार्थ को विषय कर रहा है इस कारण से मात्र उपचार से आगम में मूर्त कहा गया है। इससे कुछ ज्ञान में मूर्तपना नहीं
आ जाता।
न पुनः सर्वथा मूर्तं ज्ञानं वर्णादिमद्यतः ।
स्वसंवेद्याद्यभावः स्यात्तज्जडत्वानुषङ्गतः ॥ ७८८ ॥
अर्थ- कारणवश उसे उपचार से मूर्त कह दिया है पर उससे कहीं ज्ञान सर्वथा मूर्त स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण वाला नहीं बन जाता। यदि सर्वथा ज्ञान मूर्त हो जाय तो पुद्गल की तरह ज्ञान में जड़पना आ जायेगा और ऐसी अवस्था में स्वसंवेदन आदि का अभाव ही हो जायेगा फिर तो वह घड़ेवत् या मुरदावत् हो जायेगा। इस प्रकार उसकी शंका का निराकरण किया। अब विषय को संकोचते हैं।
उपसंहार
तस्माद्वर्णादिशून्यात्मा जीवाद्यर्थोऽस्त्यमूर्तिमान् ।
स्वीकर्तव्यः प्रमाणाद्वा स्वानुभूतेर्यथागमात् ॥ ७८९ ॥
अर्थ- क्योंकि यह सिद्ध हो गया कि ज्ञान अमूर्तिक ही है और ज्ञान है सो आत्मा है। इसलिये वर्णादि से रहित है स्वरूप जिनका ऐसे जीवादिक पदार्थ अमूर्तिक हैं ऐसा उपर्युक्त प्रमाण से और स्वानुभव से स्वीकार करना चाहिए। आगम भी इसी बात को बतलाता है कि वर्णादिक पुद्गल के गुण हैं। केवल वही एक मूर्त है और बाकी के जीवादिक पाँच द्रव्य अमूर्त हैं।
नोट- सत् की दूसरी विशेषता का निरूपण पूरा हुआ। यह श्री प्रवचनसार गाथा १३० से १३४ पर से लिया गया है ।
(ग) लोक- अलोक की विशेषता ७९०-७९१ लोकालोकविशेषोऽस्ति
द्रव्याणां लक्षणाद्यथा ।
बड़दव्यात्मा स लोकोऽस्ति स्यादलोकस्ततोऽन्यथा ॥ ७९० ॥
अर्थ- द्रव्यों में लोक- अलोक की विशेषता भी है। उसका लक्षण इस प्रकार है कि जो छः द्रव्य स्वरूप है वह लोक है और उससे विपरीत अर्थात् जो छह द्रव्य स्वरूप नहीं है वह अलोक है।
सोऽप्यलोको न शून्योऽस्ति षद्भिर्दव्यैरशेषतः । व्योममात्रावशेषत्वात् व्योमात्मा केवलं भवेत् ॥ ७९१
अर्थ - वह अलोक भी संपूर्णतया छः द्रव्यों से शून्य नहीं है। आकाश मात्र अवशेष रहने से केवल आकाश स्वरूप है।