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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक २२५ अध्यात्म में गौण रहते हैं। ये पर्याय में शुद्ध-अशुद्ध अर्थ है। यह अर्थ यहाँ इष्ट नहीं है। दूसरा शुद्ध का अर्थ यह है कि औदयिक आदि चारों भावों को विभाव भाव, विशेष भाव, नैमित्तिक भाव अथवा अशुद्ध भाव कहते हैं और इनकी अपेक्षा सामान्य स्वरूप को शुद्ध कहा जाता है। इस दृष्टि में चारों भाव अशुद्ध कहलाते हैं। सामान्य शुद्ध कहलाता प्रभागकलिदेखिश्री नियमसार गा.रक्योंकि यह प्रचलित अर्थ नहीं है। अध्यात्म का खास रहस्य है। यह अर्थ यहाँ इष्ट है। इस प्रकार सब जीव शुद्ध हैं ( २)जीवों में भेद तो औदयिक आदि चार भावों की अपेक्षा है। इन भावों की अपेक्षा जीव नाना विध कहा जाता है किन्तु इनको गौण करके सामान्य की अपेक्षा सब जीव एक विधही हैं। यह सूत्रकार का प्रथम पंक्ति का पेट है। [B) दूसरी पंक्ति का रहस्य यह है कि अब सामान्य स्वभावको गौण करिये और पर्याय को मुख्य करिये। पर्याय में जीव का परिणमन चार भाव रूप है। अध्यात्म में औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव गौण रहते हैं ऐसा नियम है। अध्यात्म में प्रायः औदयिक और क्षायिक भावों की अपेक्षा ही आपको निरूपण मिलेगा। सो औदयिक भाव वाले अमुक्त ( बद्ध) हैं। और सर्वथा क्षायिक भावों वाले मुक्त हैं यह दूसरी पंक्ति का पेट है (C) अब इन दोनों दृष्टियों को गौण करिये और प्रमाण दृष्टि की मुख्यता से परस्पर सापेक्ष अविरोध पूर्वक देखिये तो जो सामान्य की अपेक्षा शुद्ध और एक प्रकार का है वही विशेष की अपेक्षा मुक्त-अमुक्त है। ऐसा उपर्युक्त सूत्र का पेट है। अब यह बताते हैं कि उपर्युक्त सामान्य स्वरूप को धारण करने वाला जीव ही अनादि से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से बन्धा हुआ है,संसारी है, उनके निमित्त में जुड़ता चला आ रहा है। अतः अपने स्वरूप को सामान्य में धारण किये रखता हुआ भी विशेष में अपने उस स्वरूप को प्राप्त नहीं है भूला हुआ है। बद्धो यथा स संसारी स्यादलब्धस्वरूपवान् । मूर्छितोनाटितोऽष्टाभिानाद्यवृतिकर्मभिः ||८०२ ॥ अर्थ-जो बद्ध है वह संसारी है और वह अनादि से आठ ज्ञानावरणादि कर्मों से मूच्छित होने के कारण स्वरूप को प्राप्त नहीं है। भावार्थ-ऊपर कह कर आये हैं कि जीव शुद्ध नय से एक प्रकार का होने पर भी पर्याय दृष्टि से मुक्त और बद्ध दो प्रकार का है। उनमें से अब बद्धका स्वरूप बतलाते हुवे कहते हैं कि जो बद्ध है उसकी संसारी संज्ञा है। उसके साथ अनादि से निमित्त रूप से आठ कर्म भी परम्परा दृष्टि से अन्धे हुये हैं। वस्तु स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि यह जीव अनादि का अज्ञानी है और भेद विज्ञान को प्राप्त नहीं है। अत: अपनी अज्ञानता के कारण स्वरूपको भूलकर उन कर्मों के उदय में जुड़ जाता है जिससे पर्याय में राग, द्वेष, मोह की उत्पत्ति होने के कारण स्वरूप का भोग नहीं करता है किन्तु राग, द्वेष, मोह का कर्ता और सुख-दुःख का भोक्ता बना हुआ है। अब कहते हैं कि इन निमित्त रूप कर्मों का सम्बन्ध इसके साथ कब से हुआ। यथानादिः स जीवात्मा यथानादिश्च पुदगलः । द्वयोर्बन्धोऽप्यनादिः स्यात् सम्बन्धो जीवकर्मणोः H८०३॥ अर्थ-जैसे वह जीवात्मा अनादि है वैसे ही वह पुद्गल कर्म भी अनादि है तथा जीव और पुद्गल कर्म दोनों का सम्बन्ध रूप बंध भी अनादि है। द्वयोरनादिसम्वन्धः कनकोपलसन्निभः । अन्यथा दोष एव स्यादितरेतरसंश्रयः 100४|| अर्थ-जीब और कर्म दोनों का सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। यह सम्बन्ध उसी प्रकार है जिस प्रकार कि कनक पाषाण का सम्बन्ध अनादि कालीन होता है। यदि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि से न माना जाय तो अन्योन्याश्रय दोष आता है। तयथा यदि निष्कर्मा जीव: प्रागेव तादृशः । बन्धाभावोऽथ शद्रेऽपि बन्धश्चेन्निवत्तिः कथम् || ८०५॥ अर्थ-वह अन्योन्याश्रय दोष इस प्रकार है कि यदि जीव पहले ही कर्म रहित शड है तो बन्ध नहीं हो हत शद्ध है तो बन्ध नहीं हो सकता है और यदि शुद्ध होने पर भी बन्ध माना जाय तो फिर मोक्ष किस प्रकार हो सकती है? नहीं हो सकती।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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