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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अर्थ-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण का नाम ही मूर्ति है। जिसमें मूर्ति पाई जाय वही मूर्त द्रव्य कहलाता है और जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण रूप मूर्ति नहीं पाई जाय वही अमूर्त द्रव्य कहलाता है।
भावार्थ-पुद्गल सत् में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण रूप मूर्ति पाई जाती है इसलिये वह मूर्त कहलाता है। शेष पाँच सतों में उपर्युक्त मूर्ति नहीं पाई जाती, इसलिये वे अमूर्त हैं। अब मूर्त-अमूर्त दोनों की सिद्धि करते हैं:
जासम्भव भवेटेतत् प्रत्यक्षानुभवाद्यथा ।
सन्निकर्षोऽस्ति वर्णाद्यैरिन्टियाणां न चेतरैः ॥ ७७८ ॥ अर्थ-(वर्णादिक के योग से द्रव्य मूर्तिक है और वर्णादिक के अयोग से द्रव्य अमूर्तिक है ) यह असंभव नहीं है
क्ष अनुभव से सिद्ध है कि इन्द्रियों का सन्निकर्ष वर्णादिक के साथ ही होता है और इतर ( अमूर्तिक गुणों) के साथ ( इन्द्रियों का सन्निकर्ष) नहीं होता ।
नोट-यहां तक मूर्त-अमूरदास सिद्धि की। अब इसी को विशेष स्पष्ट करने के लिये शिष्य के मुख से शंका उठवाते हैं कि अमूर्त पदार्थ कोई है ही नहीं-केवल मूर्त ही है ताकि युक्ति आगम और अनुभव से मूर्त और अमूर्त की विशेषता सिद्ध कर सके ।
शंका नन्चमूर्थिसदावे किं प्रमाणं वदा नः ।
यद्विजापीन्द्रियार्थाणां सन्निकर्षात् रखपुष्पवत् ।। ७७९ ।। शंका-अमूर्तिक पदार्थ है इसमें क्या प्रमाण है? यह आज हमसे कहिये क्योंकि हमारी राय में तो इंद्रिय और पदार्थों के सन्निकर्ष के बिना जो कुछ पदार्थ है वह आकाश पुष्प के समान शून्य है।
भावार्थ-यहाँ पर शंकाकार कहता है कि अमूर्त पदार्थ भी हैं इसमें क्या प्रमाण है क्योंकि जितने भी पदार्थ हैं उन सबका इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है। अमूर्त पदार्थ का इंद्रियों के साथ सम्बन्ध नहीं होता है। इसलिये उसका मानना ऐसा ही है जिस प्रकार कि आकाश के फूलों का मानना। जिस प्रकार आकाश के फूल वास्तव में कोई पदार्थ नहीं है, इसलिये उनका इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी नहीं होता, इसी प्रकार अमूर्त पदार्थ भी कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। यदि अमूर्त पदार्थ वास्तव में होता तो घट वस्त्र आदि पदार्थों की तरह उसका भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता यहाँ पर शंकाकार का आशय यही है कि जिन पदार्थों का इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है वे ही तो वास्तव में हैं, उनसे अलग कोई पदार्थ नहीं है। अमूर्तिक पदार्थ की सत्ता को ही उड़ा दिया है।
समाधान ७८० से ७८४ नैवं यतः सुरवादीनां संवेदनसमक्षतः ।
नासिद्धं वास्तवं तन किन्वसिद्ध रसादिमत् ॥ ७८० ।। अर्ध-अमूर्त पदार्थ नहीं है या उसकी सना में कोई प्रमाण नहीं है ऐसा शंकाकार का कहना ठीक नहीं है क्योंकि सख दःखादिक का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होने से आत्मा भले प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। इससे सुख दुःखादि का प्रत्यक्ष करने वाला आत्मा वास्तविक पदार्थ है यह बात तो असिद्ध नहीं है किन्तु उसमें स्पर्श,रस, गन्ध वर्णपना असिद्ध है जिससे वह इन्द्रिय सन्निकर्ष का विषय नहीं है। इसी को अब सयुक्तिक सिद्ध करते हैं:
तद्यथा यद्रसज्ञानं स्वयं तन्न रसादिमत् ।
यरमाज्ज्ञानं सुखं दु:रवं यथा स्यान्न तथा रसः ॥ ७८१॥ अर्थ-ऊपर के श्लोक में रसादिक आत्मा से भिन्न ही बतलाये हैं। उसी बात को यहाँ पर खुलासा करते हैं। आत्मा में जो रस का ज्ञान होता है वह ज्ञान ही है। रस ज्ञान होने से ज्ञान रसवाला नहीं हो जाता है क्योंकि रस पुद्गल का गुण है वह जीव में किस तरह आ सकता है। यदि रस भी आत्मा में पाया जाय तो जिस प्रकार आत्मा में ज्ञान, सुख, दुःख का अनुभव होने से आत्मा ज्ञानी सुखी दुःखी बन जाता है उसी प्रकार रसमयी भी हो जाता परन्तु ऐसा नहीं है। (ज्ञान कहो या आत्मा एक ही बात है सो ध्यान रखिए।)