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________________ द्वितीय खण्ड /चौथी पुस्तक भावार्थ- " जीवः अस्ति स्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वात् ' अर्थ जीव है क्योंकि वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अनुभव में आता है। इस पूर्वोक्त श्लोक के अनुसार इस अनुमान प्रयोग से जीव की सिद्धि होती है। इस अनुमान प्रयोग में स्वसंवेदन हेतु प्रत्यक्ष रूप है। जीव का अस्तित्व (सत्ता) साध्य है। अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु है। जिसमें पूर्वोक्त स्वसंवेदन प्रत्यक्ष रूप हेतु नहीं है वह जीव से भिन्न अजीव पदार्थ है इस व्यतिरेक दृष्टांत से अजीव भी सिद्ध हो गया। अब कोई यह कहे कि इनकी सिद्धि का प्रयास क्यों किया तो कहते हैं कि अनादि काल से जीव को भेद विज्ञान का अभाव होने के कारण पर की सत्ता का तो निश्चय है। शरीर ही आत्मा है इसका तो निश्चय है किन्तु शरीर (अजीव ) से भिन्न चेतन सत् जीव 'मैं' हूँ। इसकी प्रतीति नहीं है। इस जीव को अपनी प्रतीति दिलाने के लिये साध्य जीव सिद्ध किया तथा शरीर धनादि में एकत्व बुद्धि मिटाने के लिये उन में अजीवपना सिद्ध किया एसी 'स्वसिद्ध्यर्थं ' पद की ध्वनि है। इस प्रकार ७७१ में सत् में जो जीव अजोब की पहली विशेषता कहीं नई बी उसकी सिद्धि ७७२-७३-७४ द्वारा की गई। २१९ प्रमाण - सत् की पहली विशेषता का निरूपण पूरा हुआ। यह ज्यों का त्यों श्री प्रवचनसारजी गाथा १२७ तथा उसकी टीका से लिया उसमें और भी अधिक मार्मिक निरूपण किया है। उसे भी पढ़िये । (ख) मूर्त अमूर्त की विशेषता ७७५ से ७८९ तक १५ मूर्तीमूर्त विशेषश्च द्रव्याणां स्यान्निसर्गतः । मूर्त स्यादिन्द्रियग्राह्यं तदग्राह्यममूर्तिमत् ॥ ७७५ ॥ अर्थ- द्रव्यों में (सतों में ) स्वभाव से ही मूर्त-अमूर्त की विशेषता है। जो इंद्रियों के ग्रहण योग्य है वह मूर्त और जो इंद्रियों के ग्रहण योग्य नहीं है वह अमूर्त है । भावार्थ - अब सत् की दूसरी विशेषता बतलाते हैं। कोई सत् मूर्त है तो कोई अमूर्त है। सतों में यह मूर्त अमूर्त का भेद स्वतः सिद्ध स्वभाव से है किसी का बनाया हुआ नहीं है। जिसमें स्पर्श-रस-गंध वर्ण पाया जावे उसे मूर्त कहते हैं अथवा जो इन्द्रियों के ग्रहण योग्य हो वह मूर्त हैं। दोनों वाक्यों का एक ही अर्थ है क्योंकि जो स्पर्श-रस-गंध वर्ण वाला होगा वही इन्द्रियों के ग्रहण योग्य होगा अथवा जो इन्द्रियों के ग्रहण योग्य होगा वह मूर्त ही होगा। क्योंकि परमाणु तब तक इंद्रियों से ग्रहण नहीं होता जब तक कि वह स्कन्ध की अवस्था में न आ जाये, अतः ग्रंथकार ने इस दोष को बचाने के लिये "जो इन्द्रियों के ग्रहण योग्य हो वह मूर्त है " ऐसा लक्षण बांधा है। छः सतों में केवल एक पुद्गल सत् मूर्त है शेष अमूर्त हैं। आत्मा को जो उपचार से मूर्त कह देते हैं वह विवक्षा यहाँ नहीं है क्योंकि यहाँ शुद्ध जीवास्तिकाय (शुद्ध जीव सत् ) का प्रकरण है। अब कोई मूर्त पदार्थ ही माने और अमूर्त न माने इसलिये दोनों की सिद्धि करके दिखलाते हैं - न पुनर्वास्तर्व मूर्तममूर्त स्यादवास्तवम् । सर्वशून्यादिदोषाणां सन्निपातात्तथा सति ॥ ७७६ ॥ अर्थ - ऐसा नहीं है कि मूर्त पदार्थ ही वास्तविक है और अमूर्त पदार्थ वास्तविक नहीं है। ऐसा होने पर अर्थात् अमूर्तिक पदार्थ न होने पर सर्व शून्यादि दोषों का प्रसंग आता है। भावार्थ- मूल में छः सत् हैं । धर्मादि चार का ज्ञान तो आगम ज्ञाताओं को ही होता है। उनका तो कोई चिह्न प्रत्यक्ष है ही नहीं । अब रही दो की बात, उनमें क्योंकि जीव अज्ञानियों को प्रत्यक्ष नहीं दिखता अतः कोई मूर्ख यह कहे कि जो इन्द्रियों से प्रत्यक्ष दीख रहा है बस यही एक मूर्त पदार्थ जगत में है। अमूर्त सत् कोई है ही नहीं। तो उसको समझाते कि भाई यदि अमूर्त नहीं तो आत्मा तो खत्म हो गया। अब रहा पुद्गल आत्मा के बिना उसे जानेगा कौन। अतः वह भी न रहा । आत्मा यदि है तो वही तो स्व पर को बतलायेगा। यदि वही नहीं है तो कुछ भी नहीं रहता। सर्वशून्य हो जाता है ऐसा ग्रन्थकार का आशय है। अब मूर्त पदार्थ किसे कहते हैं और अमूर्त किसे कहते हैं उनका भेद जानने के लिये दोनों का लक्षण बतलाते हैं । स्पर्शो रसश्च गन्धश्च वर्णोऽमी मूर्तिसंज्ञकाः । तयोगान्मूर्तिमद् द्रव्यं तदयोगादमूर्तिमत् ॥ ७७७ ॥
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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