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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रश्न १६८ - व्यवहार को श्री समयसारजी में प्रयोजनवान कहा है ना? उत्तर- तुमने ध्यान से नहीं पढ़ा वहाँ लिखा है। "जानने में आता हुआ उस काल प्रयोजनवान है। इसका अर्थ
गुरुगम अनुसार यह है कि व्यवहार ज्ञानी की पर्याय में उस समय मात्र के लिये जेय रूप से मौजूद है न कि इसका यह अर्थ है कि ज्ञाभी को उसका आअब होता। श्रीसमवसारजी. गायः १२ टीका)। श्री पंचास्तिकाय गाथा ७० टीका में लिखा है। "कर्तृत्व और भोक्तृत्व के अधिकार को समाप्त करके , सम्यक्मने प्रकट प्रभुत्व शक्तिवाला होता हुआ ज्ञान को ही अनुसरण करने वाले मार्ग में चलता है - प्रवर्तता है - परिणमता है - आचरण करता है तब वह विशुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि रूप अपवर्गनगर को पाता है।" तीन काल और तीन लोक में यही एक मोक्षप्राप्ति का उपाय है। श्री प्रवचनसार अन्तिम पंचरत्न में शुद्ध के ही मुनिपना, ज्ञान, दर्शन निर्वाण कहा है और नवमें ग्रीवक में जाने वाले पूर्ण शुद्ध व्यवहारी मुनि को संसार तत्त्व अर्थात् विभावकाराजा या मिथ्याष्टियों का सरताज कहा है। ऐसी रहस्य की बातें बिना सद्गुरु समागम नहीं आती। ऐसा मालूम होता है कि आपने बिना गुरुगम अभ्यास किया है। यदि बिना गुरुगम तत्त्व हाथ लग जाया करता तो सम्यक्त्व में देशनालब्धि की आवश्यकता न रहती।
केवल शास्त्रों से काम चल जाता। प्रश्न १६९ - प्रमाण ज्ञान का स्वरूप क्या है? उत्तर- जो ज्ञान सामान्य विशेष दोनों स्वरूपों को मैत्रीपूर्वक जानता है वह प्रमाण है अर्थात् वस्तु के सम्पूर्ण अंशों
को अविरोधपूर्वक ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण है इसका विषय संपूर्ण वस्तु है। इसके द्वारा सम्पूर्ण वस्तु का अनुभव एक साथ हो जाता है।
(६६५, ६७६) प्रश्न १७० - प्रमाण ज्ञान के भेद बताओ? उत्तर - प्रमाण के दो भेद हैं (१) प्रत्यक्ष (२)परोक्षाअसहाय ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और सहाय सापेक्ष ज्ञान
को परोक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद हैं। सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्षा केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। अवधि मनःपर्यय विकल प्रत्यक्ष है।मतिश्रुत परोक्ष है किन्तु इनमें इतनी विशेषता है कि अवधि मनःपर्याय निश्चय से परोक्ष हैं उपचार से प्रत्यक्ष हैं। मतिश्रुतज्ञान स्वात्मानुभूति में प्रत्यक्ष हैं। परपदार्थ को जानते समय परोक्ष हैं। इतनी विशेषता और है कि आत्मसिद्धि में दो मतिश्रुतज्ञान ही उपयोगी है।
अवधि मन:पर्यय नहीं। प्रश्न १७१ - निक्षेपों का स्वरूप बताओ? उत्तर - गणों के आक्षेप को निक्षेप कहते हैं। इसके चार भेद हैं। नाम स्थापना, द्रव्य और भाव। अतगण वस्तु
में व्यवहार चलाने के लिये जो नाम रखा जाता है वह नाम निक्षेप है। जैसे किसी व्यक्ति में 'जिन' के गुण नहीं है पर उसका नाम 'जिन' रखना उसी के आकार वाली वस्तु में यह वही है ऐसी बुद्धि का होना स्थापना निक्षेप है जैसे प्रतिमा। वर्तमान में वैसा न हो किन्तु भावि में नियम से वैसा होने वाले को द्रव्य निक्षेप कहते हैं जैसे गर्भ जन्म में ही भगवान को जिन कहना। जिस शब्द से कहा जाय, उसी पर्याय में होनेवाली वस्तु को भाव निक्षेप कहते हैं जैसे साक्षात् केवली को जिन कहना।
नय प्रमाण प्रयोग पद्धति । प्रश्न १७२ - द्रव्य, गुण, पर्याय पर पर्यायार्थिक नय का प्रयोग करके दिखाओ? उत्तर- द्रव्य, गुण, पर्यायवाला है अर्थात् जो द्रव्य को भेद रूप कहे जैसे गण है, पर्याय है और उनका समूह
द्रव्य है। उस द्रव्य में जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण वह द्रव्य नहीं है,पर्याय भी द्रव्य, गुण नहीं है। यह पर्यायार्थिक नय का कहना है।
(७४७ दूसरी पंक्ति, ७४९) प्रश्न १७३ - द्रव्य, गुण, पर्याय पर शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का प्रयोग करो? उत्तर- तत्त्व अनिर्वचनीय है अर्थात् जो द्रव्य है वहीं गुण पर्याय है। जो गुण पर्याय है वहीं द्रव्य है क्योंकि पदार्थ अखण्ड है। यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का कहना है।
(७४७ प्र. पंक्ति, ७५० प्र. पं.)