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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
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उत्तर - क्योंकि वह मिथ्या विषय का उपदेश करता है। वह इस प्रकार द्रव्य में गुण पर्यायों के टुकड़े करता है
जैसे परशु से लकड़ी के टुकड़े कर दिये जाते हैं किन्तु द्रव्य अखण्ड एक है उसमें ऐसे टुकड़े नहीं हैं।
अत: व्यवहार नय मिथ्या है। व्यवहार भय के कथनानुसार श्रद्धान करने वाले मिथ्यादृष्टि हैं। प्रश्न १५८ - जब वह मिथ्या है तो उसके मानने की आवश्यकता ही क्या है ? उत्तर - निश्चय नय अनिर्वचनीय है। अतः वस्तु समझने-समझाने के लिये व्यवहार नय की आवश्यकता है। यह
केवल वस्तु को पकड़ा देता है। इतना ही इसमें कार्यकारीपना है क्योंकि वस्तु को पकड़ने का और कोई
साधन नहीं है। प्रश्न १५९ - निश्चय नय का विषय क्या है ? उत्तर - जो व्यवहार नय का विषय है वही निश्चय नय का विषय है। व्यवहार नय में से भेद विकल्प निकाल
देने पर निश्चय नय का ही विषय बचता है। प्रश्न १६० - निश्चयनयावलम्बी स्वसमयी है या परसमयी ? उत्तर - निश्चयनयावलम्बी भी पर समयी है क्योंकि इसमें निषेध रूप विकल्प है। दूसरे दोनों नय सापेक्ष है। जहाँ
विधि रूप विकल्प होगा वहाँ निषेधरूप विकल्प भी अवश्य होगा। प्रश्न १६१ - स्वसमयी जीव कौन है? उत्तर - जो निश्चयनय के विकल्प को भी पार करके स्वात्मानुभूति में प्रवेश कर गया है। नयातीत अवस्था को
स्वसमय प्रतिबद्ध अवस्था कहते हैं। प्रश्न १६२ - निश्चयनय के कितने भेद हैं। कारण सहित बताओ? उत्तर- निश्चयमय का कोई भेद नहीं क्योंकि वह अखण्ड सामान्य को विषय करती है अतः उसमें भेद हो ही
नहीं सकता। वह केवल एक ही है।। प्रश्न १६३ - निश्चयनय के शुद्ध निश्चय, अशुद्ध निश्चय आदि भेद हैं या नहीं ? उत्तर- नहीं। वे व्यवहार नय के ही नामान्तर हैं। केवल कथनशैली का अन्तर है। जो उन कथनों को वास्तव में
ही कोई सामान्य की द्योतक निश्चय नय मान ले तो बह मिथ्यादृष्टि है। प्रश्न १६४ - व्यवहार नय और निश्चय नय का क्या फल है ? उत्तर- व्यवहार नय को हेय श्रद्धान करना चाहिये। यदि उसे उपादेय माने तो उसका फल अनन्त संसार है।
निश्चय नय का विषय उपादेय है। निश्चय नय का विषय जो सामान्य मात्र वस्तु है, यदि उसका आश्रय
करे और निश्चय नय का विकल्प भी छोड़े तो स्वसमयी है। उसका फल आत्मसिद्धि है। प्रश्न १६५ - निश्चय और व्यवहार के जानने से क्या लाभ है ? उत्तर - व्यवहार भेद को कहते हैं। भेद में राग, आस्त्रव, बंध, संसार है। निश्चय अभेद को कहते हैं। अभेद में
मोक्षमार्ग, वीतरागता, संवर और निर्जरा है। प्रश्न १६६ - फिर आचार्यों ने भेद का उपदेश क्यों दिया ? उत्तर - केवल अभेदको समझने के लिये। भेद में अटकने के लिये नहीं।जो केवल व्यवहार के पीछे हाथ धोकर
पड़े हैं उनके लिये जिनोपदेश ही नहीं है। ऐसा पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है। श्री समयसारजी में व्यवहार
को म्लेच्छभाषा और व्यवहारावलम्बी को प्लेच्छ कहा है क्योंकि म्लेच्छों के धर्म नहीं होता। प्रश्न १६७ - व्यवहार तो ज्ञानियों के भी होता है ना ? उत्तर - ज्ञानियों के व्यवहार का अवलम्बन, आश्रय श्रद्धा में कदापि नहीं होता किन्तु वे तो व्यवहार के केवल
ज्ञाता होते हैं। व्यवहार का अस्तित्व वस्तु स्वभाव के नियमानुसार उनके होता अवश्य है पर ज्ञेय रूप से।