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________________ २१२ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी प्रश्न १४७ - अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय का मर्म क्या है ? उत्तर - ज्ञान और आत्मा इत्यादि गुण-गुणी के भेद से आत्मा को जानना वह अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है। प्रश्न १४८ - उपचरित असद्भूत व्यवहार नय का मर्म बताओ? उत्तर- साधक ऐसा जानता है कि अभी मेरी पर्याय में विकार होता है। उसमें व्यक्त राग-बद्धिपूर्वक काराग प्रगट ख्याल में लिया जा सकता है ऐसे बद्धिपूर्वक के विकार को आत्मा का जानना यह उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। प्रश्न १४९ - अनुपचारित असद्भूत व्यवहार नय का मर्म बताओ? उत्तर - जिस समय बुद्धिपूर्वक का विकार है उस समय अपने ख्याल में न आ सके - ऐसा अबुद्धिपूर्वक का विकार भी है; उसे जानना वह अनुपचरित असद्भुत व्यवहार मय है। प्रश्न १५० - सम्यक् नय का क्या स्वरूप है ? उत्तर- जो नय तद्गुणसंविज्ञान सहित ( जीव के भाव वे जीव के तद्गुणा है तथा पुद्गल के भाव वे पुद्गल के तद्गुण हैं - ऐसे विज्ञान सहित हो) उदाहरण सहित हो, हेतु सहित और फलवान् ( प्रयोजनवान् ) हो वह सम्यक् नय है। जो उससे विपरीत नय है वह नयाभास (मिथ्या नय) है क्योंकि पर भाव को अपना । कहने से आत्मा को क्या साध्य ( लाभ) है (कुछ नहीं)। प्रश्न १५१ - नयाभास का क्या स्वरूप है? उत्तर - जीव को पर का कर्ता-भोक्ता माना जाय तो भ्रम होता है व्यवहार से भी जीव पर का कर्ता-भोक्ता नहीं है। व्यवहार से आत्मा राग का कर्ना-भोक्ता है क्योंकि राग वह अपनी पर्याय का भाव है इसलिये उसमें तद्गुण संविज्ञान लक्षण लागू होता है। जो उससे विरुद्ध कहे वह नयाभास ( मिथ्या नय) है। प्रश्न १५२ - सम्यक नय और मिथ्या नय की क्या पहचान है? उत्तर- जो भाव एकधर्मी का हो, उसको उसी का कहना तो सच्चा नय है और एक धर्म के धर्म को दूसरे धीं का धर्म कहना मिथ्या नय है। जैसे राग को आत्मा का कहना तो सम्यक् नय है और वर्ण को आत्मा का कहना मिथ्या नय है। प्रश्न १५३ - नयाभासों के कुछ दृष्टान्त बताओ? उत्तर - (१)शरीर को जीव कहना (२) द्रव्य कर्म नोकर्म का कर्ता-भोक्ता आत्मा को कहना(३)घर, थन धान्य, स्त्री, पुत्रादि बाह्य पदार्थों का कर्ता-भोक्ता जीव को कहना (४) ज्ञान को ज्ञेयगत या ज्ञेय को ज्ञानगत कहना इत्यादि। दो द्रव्य में कुछ भी संबंध मानना नयाभास है। प्रश्न १५४ - व्यवहार नयों के नाम बताओ? उत्तर - प्रत्येक द्रव्य में जितने गुण हैं उनमें हर एक गुण को भेद रूप से विषय करने वाली उसी नाम की नय है। जितने एक वस्तु में गुण हैं उतनी नय है। ये शुद्ध द्रव्य को जानने का तरीका है। जैसे आत्मा के अस्तित्व गुण को बताने वाली अस्ति नय, ज्ञान गुण को बतानेवाली ज्ञान नय। प्रश्न १५५ - उपर्युक्त नयों के पहचानने का क्या तरीका है ? . उत्तर - विशेषण विशेष्य रूप से उदाहरण सहित जितना भी कथन है वह सब व्यवहार नय है यही इसके जानने का गुर है। प्रश्न १५६ - निश्चय नय का लक्षण क्या है? उत्तर - जो व्यवहार का प्रतिषेधक हो, वह निश्चय नय है। 'नेति' से इसका प्रयोग होता है। यह उदाहरण रहित है। प्रश्न १५७ - व्यवहार प्रतिषेध्य क्यों है ?
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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