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________________ -..-.-. -...-.--.-.-." मन्थराज श्री पञ्चाध्यायी .-.....-..- उसके लिये आचार्यों ने कहा कि अब द्रव्य को भेद करने का और तरीका है और इन नयों की अब आवश्यकता नहीं। - अब तो और ही प्रकार से भेद होगा, वह प्रकार है गुण भेद। जितने गुणों का वह अखण्ड पिण्ड है बस केवल उतने ही भेद होंगे और कोई भेद न होगा और न हो सकता है। एक-एक गुण को बतलाने वाली एक-एक नय। जो गुण का नाम, वही नय का नाम जैसे ज्ञान, गुण को बतलाने वाली ज्ञान नया जहाँ तक गण-गणी का भेद है वहाँ तक व्यवहार नय है। वे सब व्यवहार नय का विस्तार है, परिवार है। ये सब काल्पनिक भेद केवल समझाने की दृष्टि से किया गया है। जो अभेद में भेद करे वह सब व्यवहार है। अब निश्चय नय को समझाते हैं। निश्चय नय का विषय परवस्तु रहित, विभाव रहित, एकदेश स्वभाव पर्याय रहित, पूर्ण स्वभाव पर्याय को गुणों में समाविष्ट करके, गुण भेद को द्रव्य में समाविष्ट करके अखण्ड वस्तु है। ऐसा कुछ वस्तु का नियम है कि पूर्ण अखण्ड द्रव्य का द्योतक कोई शब्द ही जगत में नहीं है। जो कहोगे वह एक गुण भेद का द्योतक होगा जैसे सत्-अस्तित्व गुण का द्योतक है, वस्तु-वस्तुत्व गुण का, जीव-जीवत्व गुण का, द्रव्य-द्रव्यत्व गुण का। अत: लाचार होकर अभेद के लिये आपको यही कहना पड़ेगा कि भेदरूप नहीं अर्थात् 'नेति' शब्द से वह आशय प्रकट किया जायेगा। अर्थ उसका होगा भेदरूप नहीं- अभेद रूपा यह जीव को हर समय ऐसा दिखलाता है जैसा सिद्ध में है। पुद्गल को हर समय एक शुद्ध परमाणु। धर्मादिक तो है ही शुद्ध। अब प्रमाण दृष्टि समझाते हैं। यह कहती है जो भेद रूप है, वही तो अभेद रूप है। जो नित्य है वही तो अनित्य । है। इत्यादि रूप से दोनों विरोधी धर्मों को एकधर्मी में अविरोध पूर्वक स्थापित करती है। उपर्युक्त तीनों दृष्टियों का ज्ञान होने पर वस्तु का परिज्ञान हर पहलू से हो जाता है। वस्तु स्वतन्त्र पर से निरपेक्ष, ख्याल में आ जाती है। यहाँ तक सब ज्ञान का कार्य है। इससे आगे अब नयातीत दशा को समझाते हैं। जो कोई जीव ऊपर बतलाये हुये सब विकल्प जाल को जानकर वस्तु के परिज्ञान से सन्तुष्ट हो जाता है और अपने को मूलभूत शुद्ध जीवास्तिकाय रूप जानकर उसका श्रद्धार करता है। उपयोग जो अनादि काल से पर की एकत्वबुद्धि, परक परभोक्तृत्व में अटका हुआ है, उसको वहाँ से हटा कर अपने सामान्य स्वरूप की ओर मोड़ता है और सब प्रकार के नय प्रमाण निक्षेपों के विकल्प जाल से हटकर सामान्य तत्व में लीन होता हुआ अतीन्द्रिय सुख को भोगता है वह पुरुष नयातीत दशा को प्राप्त होता है, उनको आत्मानभति, समयसार आत्मख्याति, आत्मदर्शन, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इत्यादिक अनेक नामों से कहा है। इसका फल कर्म कला से रहित पूर्ण शुद्ध आत्मा की प्राप्ति है। प्रश्न १३३ - नय किसे कहते हैं? उत्तर - नित्य-अनित्य आदि विरुद्ध दो धर्म स्वरूप द्रव्य में किसी एक धर्म का वाचक नय है जैसे सत् नित्य है, या सत् अनित्य है अथवा अनन्त धर्मात्मक-वस्तु को देखकर उसके एक-एक धर्म का नाम रखना नय है जैसे ज्ञान दर्शन इत्यादिक । (५०४,५१३) प्रश्न १३४ - नय के औपचारिक भेद लक्षण सहित लिखो? उत्तर - (१) द्रव्य नय(१) भाव नय। पौद्गलिक शब्दों को द्रव्य नय कहते हैं और उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाले विकल्प सहित जीव के श्रुतज्ञानांश को भाव नय कहते हैं। प्रश्न १३५ - नय क्या करता है? वस्तु के अनन्त धर्मों का भिन-भिन्न ज्ञान कराकर वस्तु को अनन्त धर्मात्मक सिद्ध करता है तथा उसका अनुभव करा देता है। प्रश्न १३६ - नयों के मूल भेद कितने हैं? उत्तर - दो(१)द्रव्यार्थिक या निश्चय नय (२) पर्यायार्थिक या व्यवहार नय। (५१७) प्रश्न १३७ - द्रव्यार्थिक नय किसे कहते हैं और वे कितने हैं? केवल अखण्ड सत् ही जिसका विषय है वह द्रव्यार्थिक है। यह एक ही होता है। इसमें भेद नहीं हैं। (५१८)
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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