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________________ प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक परिशिष्ट दृष्टि परिज्ञान (३) पहली पुस्तक में तीन दृष्टियों से काम लिया गया था। अखण्ड को बतलाने वाली द्रव्यदृष्टि, उसके एक-एक गुण, पर्याय आदि अंशों को बतलाने वाली पर्याय दृष्टि,खण्ड-अखण्ड उभयरूप बतलाने वाली प्रमाण दुष्टि। अब चार दृष्टि से काम लगाकर मस्तु चार गुपयों मे गुंफित है। उन युगलों के एक-एक धर्म को बतलाने वाली एकएक पर्याय दृष्टि, दोनों को इकट्ठा बतलाने वाली प्रमाण दृष्टि तथा अभेद-अखण्ड बतलाने वाली अनुभव दृष्टि या शुद्ध दृष्टि। अब इस तीसरी पुस्तक में अन्य प्रकार की दृष्टियों से काम लिया गया है। पहली व्यवहार दृष्टि, दूसरी निश्चय दृष्टि, तीसरी प्रमाण दृष्टि, चौथी नयातीत आत्मानुभूति दशा। इनकी शुद्धि के लिये नयाभासों का भी परिज्ञान कराया गया है। अब इन पर संक्षेप से कुछ प्रकाश डालते हैं। (१)सबसे पहले यह समझने की आवश्यकता है कि जैनधर्म एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से कोई सम्बन्धनहीं मानता। उनमें किसी प्रकार का सम्बन्ध बतलाना नयाभास है चाहे वह कर्ता सम्बन्धी हो या भोक्ता सम्बन्धी हो या और कोई प्रकार का भी हो। इतनी बात भली-भांति निर्णीत होनी चाहिये तब आगे गाड़ी चलेगी। (२)फिर वह जानने की आवश्यकता है कि विभाव सहित एक अखण्ड धर्मी का परिज्ञान करना है। बिना भेद के जानने का और कोई साधन नहीं है। अतः उस द्रव्य के चतुष्टय में दो अंश हैं एक विभाव अंश, शेष स्वभाव अंश। विभाव अंश उसमें क्षणिक है, मैल है, आगन्तुक भाव है,बाहर निकल जाने वाली चीज है। उसका नाम असद्भुत है अर्थात् जो द्रव्य का मूल पदार्थ नहीं है। उसको दर्शाने बाली दृष्टि असद्भुत व्यवहार नय है। ये नय विभाव को उस द्रव्य का बतलाती है और असद्भुत बतलाती है। ये नय केवल जीव पुदगल में ही लगती है क्योंकि विभाव इन्हीं दो में होता है। वह विभाव एक बुद्धिपूर्वक-व्यक्त - अपने ज्ञान की पकड़ में आने वाला। दूसरा अव्यक्त - अपने ज्ञान की पकड़ में न आने वाला। पकड़ में आने वाले को उपचरित असद्भुत कहते हैं। उपचरित का अर्थ ही पकड़ में आने वाला और असद्भुत का अर्थ विभाव। और पकड़ में नहीं आने वाला अनुपचरित असद्भुत। इस नय के परिज्ञान से जीवको मूल मेटर का और मैल का भिन्न-भिन्न परिज्ञान हो जाता है और वह स्वभाव का आश्रय करके मैल को निकाल सकता है। फिर जो बचा उसको सद्भूत कहते हैं। उसमें पर्याय को उपचरित सद्भूत और गुण को अनुपचरित सद्भूत क्योंकि पर्याय सदा पर से उपचरित की जाती है और गुण पर से उपचरित नहीं होता अत: अनुपचरित! ये नय छहों द्रव्यों पर लगती है जैसे - ज्ञान स्व पर को जानता है। यह तो जीव में सद्भुत उपचरित, पुदगल में हरा, पीला आदि उपचरित, धर्म द्रव्य में जो जीव पुद्गल को चलने में मदद दे यह स्पष्ट पर से उपचरित किया गया है, अधर्म में जो जीव पुद्गल को ठहरने में मदद करे, आकाश में जो सबको जगह दे और काल में जो सबको परिणमावे।ये सब उपचरित सद्भुत व्यवहार नय का कथन है। अब पर्याय दृष्टि को गौण करके द्रव्य और गुण का भेद करके कहना अनुपचरित जैसे आत्मा का ज्ञान गुण, पुद्गल का स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, गुण धर्म का गतिहेतुत्व गुण, अधर्म का स्थितिहेतुत्व गुण, आकाशका अवगाहत्व गुण, काल का परिणमनहेतुत्व गुण। इन गुणों को द्रव्य के उपजीवी गुण बतलाना। स्वतः सिद्ध अपने कारण में रहने वाले, ये अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है। अनुपचरित अर्थात् पर से बिल्कुल उपचार नहीं किये गये किन्तु स्व से ही उपचार किये गये। ___ अब एक दृष्टि और समझने की है वह यह कि दूसरा धर्मी तो दूसरा ही है उसकी तो बात ही क्या। विभाव क्षणिक है। निकल जाता है, वह कोई मूल वस्तु ही नहीं। अतः उसकी भी क्या बात। अब द्रव्य में केवल पूर्ण स्वभाव पर्याय और गण बचता है क्योंकि एक देश स्वभाव पर्याय भी साथ में विभाव के अस्तित्व के कारण थी।ज गया तो एक देश स्वभाव पर्याय को कोई अवकाश नहीं रहा। पूर्ण शद्ध पर्याय द्रव्य का सोलह आने निरपेक्ष स्वतः सिद्ध गुण परिणमन है।गुणों का स्वभाव ही नित्यनित्यात्मक है। जब तक पर्याय में विभाव था तब तक गुण और पर्याय का स्वभाव भेद दिखलाना प्रयोजनवान था। अब पर्याय को गुण से भिन्न कहने का कोई प्रयोजन न रहा। वह गुण में समाविष्ट हो जायेगी। जिन आचार्यों ने केवल गुण समुदाय द्रव्य कहा है वह इसी दृष्टि की मुख्यता से कहा है। अब उस द्रव्य को न असद्भुत नय से कुछ प्रयोजन रहा, और पर्याय भिन्न न रहने से उपचरित सद्भुत से भी प्रयोजन न रहा। अनुपचरित सद्भुत तो उपचरित के मुकाबले में था। जब उपचरित न रहा तो अनपचरित भी व्यर्थ हो गया।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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