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________________ २०६ - तत् - अतत् पर नय प्रमाण को लगाने की पद्धति ( ७६४ से ७६७ तक ) अभिनव भावपरिणतेर्योऽयं वस्तुन्यपूर्वसमयो यः । इति यो बदति स कश्चित्पर्यायार्थिकनयेष्वभावनयः ॥ ७६४ ॥ अर्थ वस्तु में नवीन भाव रूप परिणमन होने से "यह तो वस्तु ही अपूर्व है" ऐसा जो कोई कहता है वह पर्यायार्थिक नयों में अभाव नय-अतत् नय है ( अभाव और अतत् पर्यायवाची शब्द हैं ) भावार्थ अतत् दृष्टि से वस्तु ही प्रतिसमय नई-नई उत्पन्न होती है। यह अभाव नय या अतत् नय नाम की पर्यायार्थिक नय है । 1 ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी परिणममानेऽपि तथा भूतैर्भावैर्विनश्यमाने ऽपि । नायमपूर्वो भावः पर्यायार्थिकविशिष्टभावनयः ॥ ७६५ ॥ अर्थ - वस्तु के नवीन भावों से परिणमन करने पर भी तथा पूर्व भावों से विनष्ट होने पर भी " यह अपूर्व - अपूर्व ( नई-नई ) वस्तु नहीं है किन्तु वही की वही है" ऐसा जो कोई कथन करता है, वह पर्यायार्थिक नयों में भाव नयतत् नय है । ( भाव- तत् पर्यायवाची शब्द हैं । भावार्थ तत् दृष्टि से कोई वस्तु नई उत्पन्न नहीं होती है। वही की वही है। यह भाव नय या तत् नय नाम की पर्यायार्थिक नय है। शुद्धद्रव्यादेशादभिनवभावो सर्वतो वस्तुनि । नाप्यनभिनवश्च यतः स्यादभूतपूर्वो न भूतपूर्वो वा ॥ ७६६ ॥ अर्थ- शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से वस्तु में सर्वथा नवीन भाव भी नहीं होता है तथा प्राचीन भाव का अभाव भी नहीं होता है क्योंकि इस नय की दृष्टि में वस्तु न तो अभूतपूर्व (नई) है और न भूतपूर्व (पुरानी) है ( अखण्ड है)। अभिनवभावैर्यदिदं न परिणममानं प्रतिक्षणं यावत् । असदुत्पन्नं न हि तत्सन्नष्टं वा न प्रमाणमतमेतत् ॥ ७६७ ॥ अर्थ – जो सत् प्रतिक्षण नवीन नवीन भावों से परियामन करता है, वही न तो असत् उत्पन्न होता है और न सत् विनष्ट ही होता है यह प्रमाण का मत है। भावार्थं - जो वस्तु परिणमन की अपेक्षा प्रति समय नई-नई दीखती है, वही वस्तु तो वस्तु की अपेक्षा वही की वही है। इस प्रकार अतत्- तत् ( अभाव-भाव ) दोनों धर्मों को मैत्री रूप से एक समय विषय करने वाला जोड़ रूप प्रमाण पक्ष है। - भावार्थ - ७६४ से ७६७ तक परिणमन पर दृष्टि रखने वाले पर्यायार्थिक नय का कहना है कि प्रति समय वस्तु ही नई-नई उत्पन्न होती है यह अतत् नाम की व्यवहार नय है। वस्तु पर दृष्टि रखने वाली पर्यायार्थिक नय कहता है कि वस्तु वही की वही है, यह तत् नाम की व्यवहार नय है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहता है - न नई है न पुरानी है। अखण्ड है। प्रमाण कहता है कि जो नई-नई है वही वही की वहीं है। क्या अनेकान्त का कमाल है। अपनी-अपनी जगह सभी सच्चे हैं। ये चार पद इकट्ठे हैं। वस्तु की अनेकान्तात्मक स्थिति नामा अधिकार में श्लोक ३०९ से ३३५ तक जो सत् को तत् अतत् सिद्ध किया था उस पर यह नय प्रमाण लगाकर दिखलाये हैं । ( ७५२ से ७६७ तक के १६ सूत्रों के स्पष्टीकरण के लिये दृष्टि परिज्ञान ( २ ) को पृष्ठ १२७ पर पुनः पढ़िये ) | उपसंहार इत्यादि यथासंभवमुक्तमिवानुक्तमपि च नयचक्रम् । योज्यं यथागमादिह प्रत्येकमनेकभावयुतम् ॥ ७६८ ॥ अर्थ - इत्यादि रूप से यथा संभव जितना भी नयचक्र यहाँ पर कहा गया है और उसी के समान जितना भी नयचक्र यहाँ पर नहीं कहा गया है उसे भी आगम के अनुसार अनेक भाव युक्त प्रत्येक द्रव्य पर अलग-अलग रूप से घटित कर लेना चाहिये ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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