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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भूमिका- अब आगे चार पद्यों द्वारा व्यवहार अन्तर्गत अस्ति (सत्) तथा नास्ति (असत्) नय के विषय को दर्शाते हुए, साथ-साथ इन दोनों विकल्पों से रहित शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के विषय को दशांकर, नयों के विषय को प्रमाण किस प्रकार विषय करता है, यह बताते हैं:
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अस्ति नास्ति पर नय प्रमाण लगाने की पद्धति ७५६ से ७५९ तक अपि चारित सामान्यमात्रादथवा विशेषमात्रत्वात् । अविवक्षितो विपक्षो यावदजन्यः स तावदरितनयः ॥ ७५६ ॥
अर्थ – वस्तु सामान्य मात्र से है अथवा विशेष मात्र से है। उसमें जब तक विपक्ष अर्थात् नास्ति पक्ष अविवक्षित ( गौण ) रहता है तब तक वह एक 'अस्ति नय' है (अनन्यः शब्द का अर्थ एक है ) ।
भावार्थ सामान्य विशेषात्मक वस्तु में जिस समय विशेष को गौण करके केवल सामान्य की विवक्षा होती है अथवा सामान्य गौण करके केवल विशेष की विवक्षा होती है, उस समय विपक्ष की विवक्षा न करते केवल सामान्य या केवल विशेष की अपेक्षा से वस्तु के अस्तित्व का जो निरूपण करने में आता है, वह व्यवहार अन्तर्गत नयों में से 'अस्तिनय' का विषय है।
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नास्ति च तदिह विशेषैः सामान्यस्य विवक्षितायां वा 1
सामान्यैरितरस्य च गौणत्वे सति भवति नास्तिनयः ॥ ७५७ ॥
अर्थ – वस्तु सामान्य की विवक्षा में विशेष धर्म की गौणता होते विशेष रूप से नहीं है। अथवा विशेष की विवक्षा
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में सामान्य धर्म की गौणता होते सामान्य रूप से नहीं है। यह 'नास्ति नय' है ।
भावार्थ - वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। इसलिये जिस समय सामान्य की विवक्षा होती है, उस समय विशेष धर्म की गौणता होने से वह वस्तु विशेष की अपेक्षा से नहीं है तथा जिउ विशेष कक्षा होती है, उस समय सामान्य धर्म की गौणता होने से वह वस्तु सामान्य की अपेक्षा से 'नहीं है।' इस प्रकार जो कथन करने में आता है, उसको व्यवहार अन्तर्गत नयों में से 'नास्ति नय' का विषय कहते हैं।
द्रव्यार्थिकनयपक्षादस्ति न तत्त्वं स्वरूपतोऽपि ततः ।
न च नास्ति पररूपात् सर्वविकल्पातिगं यतो वस्तु ॥ ७५८ ॥
अर्थ · द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वस्तु स्व रूप से अस्ति रूप है यह नहीं है तथा वस्तु पर रूप से नहीं है
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यह भी नहीं है क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सब विकल्पों से रहित ही वस्तु का स्वरूप है। अखण्ड अनिर्वचनीय है।
भावार्थ- शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से तत्त्व न स्वरूप से अस्ति रूप है तथा न पर रूप से नास्ति रूप ही है कारण कि इस नय की अपेक्षा से वस्तु निर्विकल्पक (अनिर्वचनीय ) अखण्ड मानी है।
यदिदं नास्ति स्वरूपाभावादस्ति स्वरूपसद्भावात् । तदुवाच्यात्ययरचितं वाच्ये सर्व प्रमाणपक्षस्य ।। ७५९ ॥
अर्थ - जो वस्तु स्वरूपाभाव से ( पर स्वरूप के अभाव की अपेक्षा से ) नास्ति रूप है, और जो स्वरूप सदभाव से अस्ति रूप है, यही वस्तु विकल्पातीत (अनिर्वचनीय अखण्ड ) है । यह सब प्रमाण पक्ष है ।
भावार्थ - वस्तु पर्यायार्थिक नय से अस्तिरूप अथवा नास्ति रूप, द्रव्यार्थिक नय से विकल्पातीत तथा प्रमाण से अस्ति नास्ति अवक्तव्य सब रूप अविरुद्ध रीति से है।
भावार्थ - ७५६ से ७५९ तक सत् विशेष्य है। स्व रूप से अस्ति, पर रूप से नास्ति उसके विशेषण है। अतः ये दो व्यवहार नय हैं। 'नेति' सब विकल्पों से रहित अनिर्वचनीय द्रव्यार्थिक नय है। जो व्यवहार से अस्ति तथा नास्ति रूप है और जो निश्चय से अवक्तव्य है, वही प्रमाण से अस्ति नास्ति अवक्तव्य सब रूप है। इस प्रकार चारों इकट्ठे हैं। वस्तु की अनेकान्तात्मक स्थिति नामा अधिकार में श्लोक २६२ से ३०८ तक जो सत् को स्व (सामान्य) के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अस्ति (सत् ) और पर (विशेष) के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्ति
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