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प्रथम खण्ड/तृतीय पुस्तक
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पृथगादानमशिष्टं निक्षेपो नयविशेष इव यरमात् । तयारणं
निरागस्वसरे ॥ ७५१॥ अर्थ - क्योंकि निक्षेप नय विशेष के समान है इसलिये इसको पृथक ग्रहण करके निरूपण करना योग्य नहीं है क्योंकि नयों के निरूपण करते समय नियम से निक्षेपों का उदाहरण रहता है।
भूमिका - अब आगे चार पद्यों द्वारा व्यवहार नय के अन्तर्गत अनेक वा एक नय को, फिर द्रव्यार्थिक नय की, फिर इन दोनों को युगपत ग्रहण करने वाले प्रमाण को लगाकर दिखलाते हैं:
एक अनेक पर नय प्रमाण लगाने की पद्धति ७५२ से ७५५ तक अस्ति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायस्तत् त्रयं मिथोऽनेकम् । व्यवहारैकविशिष्टो नयः सतानेकसंज्ञको न्यायात ॥७५२ ।।
अथवा पर्याय.ये तीनों अपने-अपने स्वरूप से लक्षण से हैं इसलिये ये तीनों परस्पर में भी अनेक हैं - भिन्न हैं। इस प्रकार व्यवहार नयों के अन्तर्गत एक नय है वह न्यायानुसार अनेकताको प्रतिपादन करने के कारण से अनेक नाम वाली एक (व्यवहार) नय है।
एकं सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्ययोऽथवा नाम्जा।
इतरद् द्वयमन्यलरं लब्धमनुक्तं स एकजयपक्षः ॥७५३॥ अर्थ - नाम से चाहे द्रव्य कहो, अथवा गुण कहो अथवा पर्याय कहो पर सामान्यपने ये तीनों ही अभिन्न एक सत् है। इसलिये इन तीनों में से किसी एक के कहने से बाकी के दो का बिना कहे हुवे ही ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार जो सत् को एक ही कहता है बह एक नाम वाली एक व्यवहार नय है।
नोट - संग्रह नय तो अनेक द्रव्यों को सदशता की अपेक्षा से एक रूप ग्रहण करती है वह आगम की नय है जो अनेक द्रव्यों पर लगती है। यह एक नय आध्यात्मिक नय है। यह तो एक ही द्रव्य को अखण्ड रूप से ग्रहण करती है। इसका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है।
न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् ।
व्यक्तं न विकल्पादपि शदव्यार्थिकस्य मतमेतत् ।। ७५४॥ अर्थ - निरंश देश होने से अर्थात वस्त अखण्ड होने से न द्रव्य है, न गण है, न पर्याय है और वह वस्त किसी विकल्प से भी व्यक्त नहीं की जा सकती है (क्योंकि अनिर्वचनीय है यह शद्ध द्रव्यार्थिक नय की मान्यता है (४३६) ('नेति' -इतना मात्र ही निश्चय नय का लक्षण है और उसी के अनुसार यह लिखा है)।
दव्यगुणपर्ययाव्यैर्यदनेकं सद्विभिद्यते हेतोः ।
तदभेद्यमनशत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।।७५५।। अर्थ - युक्तिवश से जो सत् द्रव्य, गुण, पयायों के द्वारा अनेक रूप भेद किया जाता है वही सत् अंश रहित ( अखण्ड) होने से अभेद्य एक है यह (एक-अनेकात्मक उभयरूप) प्रमाण पक्ष है।
भावार्थ -- युक्ति पूर्वक ( लक्षण अपेक्षा ) जो सत् द्रव्य, गुण, पर्याय की अपेक्षा से अनेक है।वही सत् अंशरहित होने से अभेद्य एक ही है। इस प्रकार युगपत एक अनेक को विषय करने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रमाण का पक्ष है। जो अनेक है वही एक है -
भावार्थ-७५२ से ७५५ तक- उदाहरण सहित तथा विशेष्य विशेषण भेद सहित निरूपण करना व्यवहार नय का लक्षण है। अत: सत् अनेक है या सत् एक है यहाँ पर सत् विशेष्य-लक्ष्य है और अनेक या एक उसके विशेषणलक्षण हैं। अत: दो पद्य तो व्यवहार नय के उदाहरण है। फिर व्यवहार द्वारा विशेष्य विशेषण सहित निरूपण का निषेधक-अर्थात् न एक है - न अनेक है अखण्ड है-अवक्तव्य है - यह एक पद्य निश्चय नय का है। फिर जो अनेक है वही एक है यह जोड़ रूप ज्ञान प्रमाण है। एक पद्य इसका है। इस प्रकार चारों इकट्टे हैं। वस्तु के अनेकान्तात्मक स्थिति नामा अधिकार में श्लोक ४३४ से ५०८ तक जो सत्को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से एक भी और अनेक भी सिद्ध किया है उस पर इन चार पद्यों द्वारा नय प्रमाण लगाकर दिखलाये गये हैं।