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खोटी मान्यताओं का खण्डन ९ से १४ तक इत्थं नो चेदसतः प्रादुर्भूतिर्लिरंकुशा भवति ।
परतः प्रादुर्भावो युतसिद्धत्वं सतो विनाशो वा ॥ ९ ॥
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अर्थ-यदि ऊपर कही हुई रीति से वस्तु का स्वरूप न माना जाय अर्थात् वस्तु पूर्वोक्त अनुसार स्वतः सिद्ध न मानी जाये तो असत् पदार्थ की उत्पत्ति निरंकुश (बिना रोक-टोक ) होगी (असत् पदार्थ भी होने लगेगा।) इसी प्रकार वस्तु की पर से उत्पत्ति होने लगेगी (अर्थात् एक पदार्थ की उत्पत्ति दूसरे ईश्वरादि पदार्थ से होगी) अथवा युतसिद्ध होगा द्रव्य, गुण के संयोग से, पदार्थ कहलायेगा ) अथवा सत् का विनाश होगा।
भावार्थ - यदि वस्तु स्वतः सिद्ध नहीं मानते हो तो असत् उत्पन्न मानो, अनादि निधन नहीं मानते हो तो परतः सिद्ध मानो, स्वसहाय नहीं मानते हो तो सत् का नाश मानो, निर्विकल्प (अखण्ड ) नहीं मानते हो तो युत सिद्धता ( दो पदार्थो के संयोग से एक पदार्थ ) मानो । अर्थात् यदि वस्तु स्वतः सिद्ध नहीं मानते हो तो इनमें से किसी रूप में तो माननी पड़ेगी। प्रथम पक्ष में आपत्ति
असतः प्रादुर्भावे द्रव्याणामिह भवेटनन्तत्वम् 1
को वारयितुं शक्तः कुम्भोत्पत्तिं मृदाद्यभावेऽपि ॥ १० ॥
अर्थ-असत् की उत्पत्ति होने पर इस लोक में द्रव्य ( जातियों ) के अनन्तपना होगा। मिट्टी आदि के अभाव में भी घड़े की उत्पत्ति को रोकने के लिये कौन समर्थ होगा ? कोई नहीं ।
भावार्थ - यदि असत् की उत्पत्ति मान ली जाय अर्थात् जो वस्तु पहले किसी रूप में भी नहीं है, एसी वस्तु की उत्पत्ति मानने से वस्तुओं की कोई मर्यादा नहीं रह सकती है। जब बिना अपनी सत्ता के ही नवीन रूप से उत्पत्ति होने लगेगी तो संसार में अनन्तों द्रव्य होते चले जायेंगे। इसलिये वस्तु को स्वतः सिद्ध मानना ही ठीक है। बिना मिट्टी के घड़ा स्वयं पैदा होने लगेगा।
दूसरे पक्ष में आपत्ति
परतः सिद्धत्वे स्यादनवस्था लक्षणो महान् दोषः
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सोऽपि परः परतः स्यादन्यस्मादिति यतश्च सोऽपि परः ॥ ११ ॥
अर्ध-वस्तु को पर से सिद्ध मानने पर अनवस्था लक्षण महान दोष आता है। वह इस प्रकार आता है कि वस्तु जब पर से सिद्ध होगी तो वह पर भी किसी दूसरे पर पदार्थ से सिद्ध होगा और वह पर भी दूसरे पर से सिद्ध होगा ( क्योंकि पर सिद्धमानने वालों का यह सिद्धांत है कि हर एक पदार्थ पर से ही उत्पन्न होता है ) ( उससे वह, फिर उससे वह इस प्रकार कितनी ही लम्बी कल्पना क्यों न की जाय परन्तु कहीं पर भी जाकर विश्राम नहीं आता । जहाँ रुकेंगे वहाँ पर यही प्रश्न खड़ा होगा कि यह कहाँ से हुआ। इस लिये वस्तु को पर सिद्ध न मान कर अनादिनिधन मानना चाहिये | )
भावार्थ- नैयायिक आदि कतिपय दर्शनवाले वस्तु को पर से सिद्ध मानते हैं । ईश्वरादि को उसका रचयिता बतलाते हैं परन्तु यह मानना सर्वदा मिथ्या है क्योंकि ईश्वर को किसने बनाया। यदि ईश्वर स्वत: सिद्ध है तो सब ही स्वतः सिद्ध हैं ।
तीसरे पक्ष में आपत्ति
युतसिद्धत्वेऽप्येवं गुणगुणिनोः स्यात्पृथक्प्रदेशत्वम् । उभयोरात्मसमत्वालक्षणभेदः कथं तयोर्भवति ॥ १२ ॥
अर्थ-युतसिद्ध मानने पर ( अर्थात् पदार्थों के संयोग से पदार्थ मानने पर जैसे लकड़ी और पुरुष के संयोग से दण्डी ) गुण और गुणी (जिसमें गुण पाया जाय ) दोनों ही के भिन्न-भिन्न प्रदेश ठहरेंगे उस अवस्था में दोनों ही समान ठहरेंगे। फिर अमुक गुण है और अमुक गुणी है ऐसा गुण गुणी का भिन्न-भिन्न लक्षण उन दोनों में नहीं बन सकेगा।